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सातवां प्रवचन-७
मिथ्यात्व और सम्यक्त्त्व
परम पूजनीय परमनाथ परमार्हन् परमगुरु परमकृपालु परमप्रभु परमविभु परमेश्वर परमेष्ठि परमात्मा श्री महावीर स्वामी के चरणारविन्दु में अनन्तानन्त नमस्कार पूर्वक............
अट्ठ कम्पाइं वोच्छामि. अणुपुठिव जहक्कम । जेहिं बद्ध अयं जीवे, संसारे, परिक्त्तए ॥१॥ माणस्सावरणिज्ज, सणावरणं तहा । वेयणिज्जं तहा मोहं, आउककम्मं तहेव य ॥२॥ नाणकम्मं च गोपं च, अन्तरायं तहेव य । एवमेयाइ कम्माई, अद्वैव य समासओ ॥३,
[उत्तरा. अ. ३३ श्लोक, १-३]
जैन आगम साहित्य में पवित्रतम माने गये एवं श्री महावीर प्रभु की अन्तिम देशना रूप श्री उत्तराध्ययन सूत्र के ३३ वें कर्मप्रकृति नामक अध्ययन में ८ कर्मों की मीमांसा की गई है। ऊपर दिये गए श्लोकों में प्रथम ही आठ कर्मों का नामोल्लेख पूर्वक निर्देश किया गया है। "अट्ठ कम्माइं वोच्छामि आणपुचि जहक्कम" इस प्रथम पंक्ति में ही कहा है कि ८ कर्मों को कहता है, जैसा आणुपूवि-क्रम है ऐसा कहकर आठों कर्मों के नाम आगे के दो श्लोकों में गिनाए है। जिनमें क्रम इस प्रकार है-१. ज्ञानावरणीय कर्म, २. दर्शनावरणीय कर्म, ३. वेदनीय कर्म, ४. मोहनीय कर्म, ५. आयुष्य कर्म, ६. नाम कर्म, ७. गोत्र कर्म, ८. अंतराय कर्म । इस प्रकार क्रमशः आठों कर्म बताए गए है, तथा उनका क्रम इस तरह से रखा गया है । प्रायः अन्य भी छोटे-बड़े सभी शास्त्रों एवं ग्रन्थों में यही क्रम रखा गया है । उदाहरणार्थ श्री प्रशमरति प्रकरण ग्रन्थ, कर्मग्रंथ, नवतत्त्व प्रकरण एवं तत्त्वर्थाधिगम सूत्र में उमास्वाति महारात ने सूत्र रचना में यही क्रम रखा है, तथा
कर्म की गति न्यारी