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देवलोक के देवताओं ने सम्राट श्रेणिक के सम्यग् दर्शन की कई बार विचित्र
ने उनकी सचोट श्रद्धा को श्रद्धालु राजा अपनी श्रद्धा में वे धन्य थे | ऐसे शुद्ध सम्यक्त्वी श्रेणिक महाराजा थे ।
ढंग से परीक्षा भी की । गर्भवती साध्वी एवं मच्छीमार साधु का रूप लेकर देवताओं डिगाने का प्रयत्न भी किया; परन्तु श्रेणिक जैसे परम अचल अटल रहे । कठिन कसौटियों में से पसार हुए,
महासती परम श्रद्धालु सुलषा श्राविका के जीवन में प्रथम संतानोत्पत्ति का अभाव होते हुए भी उन्होंने कभी भी अपनी सम्यग्श्रद्धा को विचलित नहीं किया । उन्होंने कभी रागी -द्वेषी - देवी-देवताओं की मानता, आखड़ी मानने का पाप नहीं किया । उन्होंने मिथ्या धर्म का आचरण कभी भी नहीं किया । योगानुयोग बत्तीस पुत्रों की प्राप्ति होने पर एवं भवितव्यतावश बत्तीस ही पुत्रों की चेड़ा राजा के साथ युद्ध में मृत्यु भी हो गई, तथापि उन्हें रंज मात्र भी शोक नहीं हुआ । अंबड परिव्राजक की परीक्षा में भी पार उतरकर सुलषा श्राविका ने अपने सम्यग् दर्शन की सही अर्थ में रक्षा की, एवं आगामी चौवीसी में तीर्थंकर बनने का सौभाग्य प्राप्त किया ।
मालवदेश की उज्जयिनी (उज्जैन) नगरी के प्रजापाल राजा की दो पुत्रियां | मिथ्याशास्त्र पढ़ी हुई सुर सुन्दरी, मिथ्यामति थी जबकि कर्म-धर्म का सम्यग् सिद्धान्त पढ़ी हुई मयणा सुन्दरी शुद्ध' सम्यग् दृष्टि श्राविका थी, जिसने अपने पति
श्रीपाल राजा को भी शुद्ध सम्यग् दृष्टि श्रावक बनाया था । मयणा श्रीपाल के जीवन में आए हुए सैकड़ों कष्टों एवं दुःखों के द्वारा उनकी सम्यग् दृष्टि-श्रद्धा की परीक्षा हुई। फिर भी श्रीपाल - मयणा दम्पत्ति श्रद्धा की कसौटी पर पूरे सौ टका खरे उतरे । सिद्धचक्र रूप नवपद की परमभक्ति एवं उपासना करके, उन्होंने अपना कल्याण साध लिया । इस तरह उन्होंने नवें भव में मोक्ष जाने का अधिकार प्राप्त किया । ऐसे सम्यग् श्रद्धावंत मयणा - श्रीपाल का आदर्श आज भी " श्रीपाल रास" के रूप में उपलब्ध है |
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कर्म की गति न्यारी