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________________ रूप धारण किए। उसने बहुत बड़ी मायाजाल खड़ी कर दी। नगर के हजारोंलाखों लोग उसके आशीर्वादार्थ एवं दर्शनार्थ उमड़ने लगे । अंबड उनमें सुलषा को ढढने लगा । आखिर सुलषा न आई, सो नहीं आई । अन्त में थककर, परेशान होकर उसने तीर्थंकर का रूप बनाया और अपनी मायाजाल से समवसरण का रूप निर्माण किया । यह प्रचारित किया गया कि पच्चीसवें तीर्थंकर राजगृही नगरी में पधारे हैं और सबको धर्म लाभ दे रहे हैं । ऐसी खूब प्रसिद्धि सुनकर हजारों-लाखों लोगों की भीड़ जमने लगी, परन्तु इससे भी सुलषा टस से मस न हुई । सत्यवादी सम्यग् दृष्टि सुलषा ने जो कभी भी असत्य को सत्य एवं सत्य को असत्य कहने के लिए तैयार नहीं थी, सत्य सिद्धान्त शास्त्र के आधार पर विचार किया कि - तीर्थंकर तो मात्र चौबीस ही होते हैं । पच्चीसवें तीर्थकर न तो कभी हुए हैं और न कभी होंगे | इतना ही नहीं वरन् इस भरत क्षेत्र में एक समय में एक साथ दो तीर्थंकर कभी भी नहीं होते हैं । ऐसा सर्वज्ञ का वचन है । वर्तमान में जबकि चौबीसवें तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी विद्यमान हैं, तब फिर पच्चीसवें तीर्थ के होने या आने का प्रश्न ही खड़ा नहीं होता है । भले ही समवसरण आदि की रचना क्यों न हो, परन्तु पच्चीसवें तीर्थंकर तो हो ही नहीं सकते हैं । M इस प्रकार अपने सम्यग् रूप सच्ची श्रद्धा से परीक्षा करके सुलषा श्राविका समवसरण की रचना सुनकर भी सर्वथा रंजमात्र भी विचलित न हुई और न गई । आखिर हार स्वीकार कर अंबड परिवाज्रक एक श्रावक का रूप लेकर सुलषा श्राविका के घर पहुँचा और हाथ जोड़ते हुए, नतमस्तक होकर विनीत भाव से सुलषा को कहा कि - हे देवी ! आपको भगवान महावीर ने धर्मलाभ कहलवाया है । यह सुनते ही सच्चे तीर्थंकर सर्वज्ञ प्रभु महावीर का नाम एवं उनकी तरफ से “धर्मलाभ” का सन्देश सुनते ही सुलषा हर्ष विभोर होकर नाच उठी । वास्तव में सुलषा सत्यशोधक यथार्थ तत्व रुचिवाली एवं शुद्ध सम्यग् दृष्टि श्राविका थी, जिसने सम्यग् दर्शन से अपना जीवन धन्य बनाते हुए, ऐसी अनुपम साधना की जिससे उसने तीर्थंकर नाम कर्म उपार्जन किया । आगामी चौबीसी में तीथकर बनकर मोक्ष जाने का सौभाग्य प्राप्त किया। ऐसी एक विदुषी श्राविका के जैसी ही सम्यग् श्रद्धा हमें भी रखनी चाहिए, जिससे हम भी शुद्ध सम्यग् दृष्टि वाले बन सकें । कर्म की गति न्यारी ११९
SR No.002481
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherJain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha
Publication Year
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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