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________________ उसमें असत्यादि की मिलावट नहीं करता है । सत्य का प्राकृतिक एवं वास्तविक स्वरूप स्वीकार करना यह चौथे भेद का कार्य है। यह जानने, मानने, देखने आदि सभी क्षेत्र में सत्य को सत्य रूप में ही स्वीकार करता है। संसार में ऐसे चार प्रकार के जीव होते हैं, जिसमें पहले और दूसरे प्रकार के जीव बहुसंख्य होते हैं, जबकि तीसरे प्रकार के जीव बहुत कम होते हैं और चौथे प्रकार के जीव सबसे कम याने अल्प होते हैं । यद्यपि वकीलों का कार्य असत्य को असत्य रूप में एवं सत्य को सत्य रूप में सिद्ध करने का था, परन्तु स्वार्थवृत्ति वश वे भी इन दिनों दोनों भेदों को छोड़कर पहले दूसरे भेद की तरह सत्य को असत्य और असत्य को सत्य में परिणत करने रूप सिद्ध करने का काम करते हैं । यह मिथ्या-विपरीत प्रवृत्ति ही है । अतः मनुष्य को सत्य का आग्रही, सत्यान्वेषी, सत्य का पक्षपाती एवं सम्यग् दृष्टि अर्थात् सम्यक्त्वी ही बनना चाहिये । वही जगत को सही एवं सच्चा न्याय दे सकेगा, जैसाकि भूतकाल के अनेक महापुरुषों ने किया था। इनमें सुलषा जैसी महान श्राविका का भी नामोल्लेख किया गया है। सुलषा के सम्यक्त्व की परीक्षाराजगृही नगरी की तरफ जाते हुए, अंबड नामक परिवाज्रक के साथ भगवान महावीर प्रभु ने सुलषा नामक श्राविका के लिए "धर्म लाभ" का आशीर्वाद भिजवाया और कहा, हे अंबड ! तुम राजगृही जाकर सुलषा नामक श्राविका को मेरा धर्म लाभ का सन्देश जरूर कहना। अंबड राजगृही गया परन्तु उसने मन में सोचा कि सुलषा कैसी औरत है ? यह कितनी बड़ी और महान् स्त्री है ? जिसे भगवान महावीर. ने धर्म लाभ कहलवाया है। और किसी को नहीं परन्तु महावीर ने सुलषा को ही धर्मलाभ क्यों कहलवाया ? .." ___ इस तरह ऊहापोह मन में करता हुआ अंबड परिवाञक सुलषा की परीक्षा करने के लिये कमर कसता है । वह राजगृही नगरी के बाहर ब्रह्मा का रूप बनाकर लोगों को आशीर्वाद देने लगा। उसकी धारणा थी कि शायद इस प्रसिद्धि व प्रचार के कारण सभी के बीच सुलषा भी अवश्य आवेगी। हुआ ठीक इसके विपरीत । अपनी शक्ति से रूप बदलते हुए अंबड ने बाद में शंकर, कृष्ण, विष्णु इत्यादि के ११८ कर्म की गति न्यारी
SR No.002481
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherJain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha
Publication Year
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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