________________
आठ प्रभावक - प्रवचनी, धर्म कथनी, वादी, निमित्तभावी, तपस्वी, विद्यासम्पन्न, सिद्ध, कवि |
छः आगार - रायाभियोगेणं, गयाभियोगेणं, बलाभियोगेणं, देवाभियोगेणं, गुरुनिग्रह, वृत्तिकान्तार ।
चार सद्हणा - तत्वज्ञान का परिचय, तत्वज्ञानी की सेवा, व्यापन्नदर्शनी वर्जन, कुलिंगी संग वर्जन ।
छ: जयणा - कुदेव या कुचत्य के साथ ६ प्रकार का व्यवहार न करना, वंदन, नमन, दान, प्रदान, आलाप, संलाप ।
छः स्थान - अस्ति, नित्य, कर्ता, भोक्ता, मुक्ति, उपाय ।
दश विनय - निर्मलता के लिए इन दस का विनय करना - अरिहंत, सिद्ध, चैत्य, श्रुत, धर्म, साधु, आचार्य, उपाध्याय प्रवचनी, दर्शन ।
उपरोक्त सम्यक्त्व के ६७ अधिष्ठान स्थान हैं । इनको पहचानना और और इनका आचरण करना लाभदायी है । इससे सम्यक्त्व की प्राप्ति भी होती है, या प्राप्त सम्यक्त्व निर्मल होता है । इन ६७ अधिष्ठान स्थानों को सम्यक्त्व के ६७ भेद या प्रकार के रूप में भी समझे जाते हैं । ऐसा सम्यक्त्व प्राप्त जीव सम्यक्त्बी एवं सम्यग् दृष्टि बन जाता है । इसके कारण प्रत्येक क्षेत्र में वह यथार्थ एवं वास्तविक ज्ञान की बुद्धि से देखता है, जानता है और उसे मानता है ।
सम्यग् दर्शन में - जानना श्रौर मानना
सम्यग् ज्ञान से जीव जानता है और सम्यग् दर्शन से जीव मानता है । इसलिए यदि सम्यग् ज्ञान है तो उसकी जानकारी भी सम्यग् एवं सच्ची होगी । ठीक इससे विपरीत यदि ज्ञान मिथ्या या विपरीत या भ्रमपूर्ण या संदेहास्पद या संशयात्मक होता है तो उसकी जानकारी एवं श्रद्धा भी वैसी ही विपरीत होगी । अतः सही श्रद्धा के लिए ज्ञान भी सही होना अत्यन्त आवश्यक है । दर्शन अर्थात् श्रद्धा यदि सम्यग् (सच्ची) होगी तो जीव की तत्वों के विषय में मान्यता अर्थात् मानने की वृत्ति भी सम्यग् होगी । अतः जानना और मानना यद्यपि स्वतन्त्र और भिन्न-भिन्न है तथापि यदि ने सहयोगी एवं सहभागी बन कर साथ रहेंगे तो दुगुना चौगुना लाभ होगा ।
कर्म की गति न्यारी
११२