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________________ तीन विषयों पर उसकी श्रद्धा का आधार दिखाई देता है, अतः इन तीन विषयों को इस तरह स्पष्ट किया है अरिहंतों, महदेवो, जावज्जिवं सुसाहुणो गुरुणो । जिणपन्नत्ततत्तं, इअ सम्मत्तं मए गहिरं ॥ अरिहंत ही मेरे देव भगवान हैं, सुसाधु मुनिराज ही मेरे गुरु हैं, एवं सर्बज्ञ जिनोपदिष्ट तत्व ही मैं यावत-जीवन (आजीवन) पर्यंत स्वीकार करता हूँ। यहां जिनोपदिष्ट तत्व से धर्म तत्व लिया गया है। इस तरह देव-गुरु-धर्म रूप तत्व की यथार्थता को सम्यग् श्रद्धा पूर्वक स्वीकारने वाला साधक यह कहता है कि ऐसा सम्यक्त्व-सम्यग्दर्शन या सम्यग् श्रद्धा मैंने स्वीकार की है। इसे ही भावना रूप बनाकर साधक प्रतिदिन इसका बारबार स्मरण करता है।' समकित के ६७ बोल पूज्य उपाध्याय यशोविजय जी महाराज ने सम्यग् दर्शन प्राप्त किए हुए सम्यग् दृष्टि साधक के स्वरूप का विवेचन करते हुए ६७ बोल मुख्य रूप से बताए हैं । अर्थात् सम्यक्त्वी कैमा होना चाहिये, उसके लक्षण क्या हैं ? वैसे ही सम्यक्त्वी की शोभा किस में हैं ? इस तरह सद्दहणा-जयणा-भावना, विनयादि कितने भेद-प्रभेद से युक्त सम्यक्त्वी का स्वरूप कैसा होता है ? यह प्रदर्शित किया है । उपाध्यायजी ने इस विषय में “समकितना ६७ बोल" की सज्झाय नामक स्वतन्त्र पुस्तक रूप में रचना की है । यद्यपि यह स्वतन्त्र ग्रन्थ रूप से अध्ययन करने योग्य है तथापि यहां पर स्थान एवं विस्तारं भर से संक्षेप में उन ६७ बोलों के नाम मात्र का उल्लेख करते हैं तीन शुद्धि-मन, वचन, काया । तीन लिंग-सुश्रुषा, राग वैयावच्च । पांच लक्षण-शम, संवेग, निवेद, आस्तिक्य, अनुकंपा । पांच दूषण-शंका, आकाँक्षा, वितिगिच्छा, प्रशंसा और संस्तव । पांच भूषण-स्थैर्य, प्रभावना, भक्ति, कुशलता और तीर्थ सेवा । कर्म की गति न्यारी १११
SR No.002481
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherJain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha
Publication Year
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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