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शास्त्रों में बताए गए प्रमाद के भेदों में निद्रा भी गिनी गई है । अतः अत्यन्त कीमती और दुर्लभ मनुष्य जन्म प्रमाद में बीत न जाए उसका हमें पूरा ध्यान रखना चाहिए । कहीं ऐसा न हो जाय कि -
रात गंवाइ सोय के, हीरा जन्म अमोल था, कोडी
दिवस गंवायो खाय ।
मुल्ये जाय ॥
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इसलिए नीतिकार कहते हैं कि - " श्वान निद्रा, बकः ध्यानं" हमारी नींद कुत्ते जैसी अल्प निद्रा वाली होनी चाहिए और बगले की तरह स्थिर चित्त वाला स्थिरता वाला ध्यान होना चाहिए। (यहां एक अंशी उपमा दी गई है सर्वांशी नहीं है ।)
श्राहार और नींद में सम्बन्ध -
आहारे ऊंघ वधे घणी, निद्रा दुःख भण्डार । नैवेद्य धरी प्रभु आगले, वरीय पद अणाहार ॥
वीरविजयजी महाराज कहते हैं कि- ज्यों-ज्यों आहार का प्रमाण बढ़ता हैं त्यों-त्यों नींद का प्रमाण भी बढ़ता जाता हैं । ऐसी निद्रा दुःख का भण्डार रूप होती हैं । इस नींद के पीछे अनेक दुःख आते हैं । इसलिए इस कर्मोदय को टालने के लिए आहार का अर्थात् नैवेद्य का भरा हुआ थाल प्रभु के आगे त्याग भावना से अर्पण करें जिससे अणाहारी - निराहारी मोक्ष का पद प्राप्त कर सकते हैं । योगशास्त्र में भी कहते हैं कि आहार और निद्रा में परस्पर जन्य-जनक भाव- सम्बन्ध है । आहार बढ़ने से नींद बढ़ती हैं और नींद बढ़ने से आहार बढ़ता है । दोनों बढ़ते ही जाये तो बुद्धि जड़ता की तरफ ढलती है । अतः अल्पाहारी - हिताहारी - मिताहारी - परिमिताहारी एवं अल्प निद्रालु बनना ही लाभदायक है ।
निद्रा का शास्त्रीय स्वरूप -
सुह-पडिबोहा निद्दा गिद्दा निद्दा य दुक्ख पडिबोहा | पयला ठिओव विट्ठस्स पयल-पयला उ चंकमओ || दिण-चिति अत्य-करणी थीणद्धी अद्ध-चक्कि अद्ध-बला । [कर्म ग्रन्थ]
कर्म की गति न्यारी