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स्वामी दरशण समो निमित्त लही निरमलो,
जो उपादान शुचि न थाशे;
दोष को वस्तुनो अहवा उद्यम तणो, स्वामी सेवा सही निकट लाशे ॥
कि.
पूज्य देवचन्द्रजी महाराज भगवान महावीर स्वामी के स्तवन में कहते हैं - स्वामी - भगवान के दर्शन के समान उत्कृष्ट निर्मल निमित्त पाकर के भी यदि हमारा उपादान पवित्र न बन सके तो उसमें किसका दोष मानना चाहिए । दोष वस्तु का होगा या अपने उद्यम - पुरुषार्थ का होगा ? क्योंकि “स्वामी सेवा" - प्रभु पूजाभक्ति तो प्रभु के निकट लाने वाली है । इस गाथा के प्रथम चरण में प्रभु दर्शन की और अतिम चरण प्रभु सेवा-पूजा की बात की है । दर्शन-पूजा को उन्होंने भक्त को भगवान के निकट लाने वाली बताई है, तथा प्रभुदर्शनादि से हमारे उपादान की निर्मलता होती है ऐसा बताया है ।
प्रभुदर्शन में स्व-प्रात्म दर्शन
जिसमें प्रभु एक
इस पाठशाला में
जिनेश्वर प्रभु का मन्दिर एक राज दरबार है, जहां प्रभु न्याय कर्ता राजा के स्वरूप में बैठे हैं । प्रभु का मन्दिर एक पाठशाला है, शिक्षक के रूप में बिराजमान हैं और हमारे जैसे भक्त प्रतिदिन एक विद्यार्थी के रूप में शिक्षा लेने आते हैं । प्रभु मूक शिक्षक के रूप में है । हम चाहें तो उनके दर्शन करने के रूप में बहुत अच्छी शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं । यदि हमें करना आए तो ? शिक्षक के रूप में प्रभु को बोलने की कोई आवश्यकता ही नहीं है । जिनका समस्त जीवन ही शिक्षा स्वरूप है, उपदेश स्वरूप ही है - उन्हें शिक्षा देने की आवश्यकता नहीं है | हमें शिक्षा लेने की आवश्यकता है । प्रभु प्रतिमा की प्रशांत मुद्रा हमें शान्त होने की शिक्षा देती है । प्रभु प्रतिमा का वीतराग स्वरूप कैसा है यह निम्न श्लोक में बताया है
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प्रशमरस निमग्नं,
वदनकमल मंक,
करयुगमपिधत्ते,
शस्त्र संबंधवंध्यम्,
तदसि जगति देवो वीतरागस्त्वमेव ॥
दृष्टियुग्मं प्रसन्नम्,
कामिनी संगशून्यः
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कर्म की गति न्यारी