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इनमें पहले इन्द्रियदर्शन' के चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन दो भेद करके कुल दर्शन के चार प्रकार माने गए हैं।
चक्षुरिन्द्रिविषयक मान्यावबोधरूपत्वं चक्षुदर्शनस्य लक्षणम्- चक्षु इन्द्रिय के विषय का जो सामान्य बोध रूप जो निराकार - निर्विकल्प ज्ञान होता है— उसे चक्षुदर्शन कहते हैं ।
चक्षुर्वर्जा पर न्द्रिय मनो विषय कसामान्याव बोधरूपत्वमचक्षुदर्शनस्य लक्षणम् - चक्षु इतर अन्य चार इन्द्रियां और मन से होने वाले दर्शन को अचक्षुदर्शन गिना है । अचक्षुदर्शन अर्थात् चक्षु के अतिरिक्त अन्य इन्द्रिया और मन से जो निराकार उपयोग प्रवर्तता है उसे अचक्षुदर्शन कहा है।
वास्तव
अवधिदर्शनावरणक्षयोपशमादिवशाद् विशेषग्रहणवं मुख्येन रूपिद्रव्य विषयक
सामान्यावोधरूपत्वमवधिदर्शनस्य लक्षणम् ।
यत क्षेत्राधि परिमित लोक के रूपी पुद्गल पदार्थों को देखना अर्थात् इनका सामान्य रूप से निराकार बोध यह अवधिदर्शन का कार्य है । इसी से बाद में साकारोपयोग विशेष बोध अवधिज्ञान रूप होता है ।
मनः पर्यव को ज्ञान बताया है, परन्तु मनः पर्यव का अलग स्वतन्त्र दर्शन नहीं बताया हैं । कारण बताते हुए कहा है कि मनः पर्यवज्ञानी तथाविध क्षयोपशम की विशालता के कारण पहले व बाद में भी मन के भाव विशेष रूप से ही ग्रहण करते हैं - जानते हैं । वहां सामान्य रूप निराकार बोध नहीं होता है, परन्तु पहले व बाद दोनों ही अवस्था में साकार विशेष स्पष्ट बोध होता हैं । अतः मनः पर्यवज्ञान का दर्शन न होते हुए सीधे ही ज्ञान ही होता है । सर्वज्ञ प्रभु ने और केवल ये चार प्रकार के दर्शन बसाए हैं । मनः नहीं बताया है ।
आगम में चक्षु, अचक्षु, अवधि पर्यव को स्वतन्त्र रूप से दर्शन
दर्शनावरणीय कर्म की उपमा
पड- -पैडिहार-सि-मज्ज, हडचित्त-कुलाल-भड़गारीणं । जह एऍसि भाषा, हम्मान दिं जाण तह भावा ॥ ३८ ॥
(नवतत्त्व प्रकरण)
कर्म की गति न्यारी
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