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रोना और कल्पान्त करना वह भी यहां तक कि आंख की पलकें तक भी सूज गई थी । इस तरफ युगादिदेव ऋषभदेव को केवलज्ञान प्राप्त हुआ है, यह समाचार लेकर दूत चक्रवर्ती भरत के द्वार पर आया । भरतजी मरुदेवी माता को हाथी की अंबाडी पर बैठाकर सर्वज्ञ प्रभु के दर्शनार्थ चले । समवसरण के समीप आते ही देव दुन्दुभी सुनते ही ऐसी अपूर्व दिव्यध्वनि जो कभी भी नहीं सुनी थी, उसे सुनकर मरुदेवी माता मोहदशा को दूर करके अनित्य, एकत्वादि भावना में स्थिर होकर ध्यान की धारा में गुणस्थानकों की श्रेणी में प्रागे बढ़ी । मोहपाश का बन्धन टूटते ही वीतरागता की अवस्था में पाकर अन्य ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीय तथा अन्तराय आदि कर्मों का सर्वथा क्षय करके केवलज्ञान प्राप्त करके अन्तःकृत् केवली बन कर मोक्ष में गये । सदा के लिए संसार से मुक्त हुए।
गौतमस्वामी को केवलज्ञान - चरमतीर्थाधिपति श्रमण भगवान महावीर स्वामी के प्राद्य गणधर प्रथम प्रमुख शिष्य इन्द्रभूति गौतम ने ५० वर्ष की आयु में दीक्षा ग्रहण करके ३० वर्ष छाया की तरह साथ रहकर प्रम की सेवा की। निर्वाण समय समीप पाते ही वीर प्रभु ने गौतम की प्रशस्तभाव की रागदशा को दूर करने हेतु उन्हें देवशर्मा ब्राह्मण को प्रतिबोधित करने के लिए भेजा। तथा मध्य रात्रि में श्री महावीरप्रभु निर्वाण पाकर मोक्ष में पधारे । प्रात: प्रभातकाल में वापिस लौटते हुए गौतमस्वामी ने लोको के मुख से समाचार सुने हुए और वे भी विषाद के गर्त में गिर गये । वीर-वीर करके विषाद के घेरे में घिरे हुए गौतम को विलाप करते हुए एकाएक वीर शब्द के दो अक्षर “वी" से-वीत और "र" से-' राग" इस तरह "वीतराग" शब्द स्मृति पटल पर आया। वीतराग शब्द बोलते ही वीतरागी की राग-द्वष रहित अवस्था का स्वरूप प्रांख के सामने दिखाई दिया । बस इस प्रालंबन ने गौतमस्वामी को क्षपकश्रेणि पर चढ़ा दिया । गुणस्थान की श्रेणि में आगे चड़ते हुए एक दिन के तीव्र रागी गौतमस्वामी ने राग-मोहपाश के बंधन तोड़े और स्वयं वीतरागी बने । क्षण में ही घनघाती कर्मों का क्षय होते ही गौतमस्वामी केवलज्ञानी बने । कार्तिक सुदि १ की प्रभात में ही प्रभु के अनुगामी के रूप में केवली बन कर १२ वर्ष कैवल्य की देशना से धरा को पावन करके मोक्ष पधारे।
पन्द्रहसौ तापसों को केवलज्ञान-प्रसिद्ध प्राचीन तीर्थ अष्टापद पर ऊपर जाने हेतु १५०० तापस प्रथम-द्वितीय सोपान पर ही प्रासन एवं तप करके लब्धि प्राप्त करने में लगे थे । ऐसे में जब गौतमस्वामी स्वलब्धि से सूर्य की किरणों को पकड़कर अष्टापद पर ऊपर गये और रात्रि वहाँ निवास कर चैत्यवंदन आदि करके लौट रहे थे तब १५०० तापसों ने उन्हें देखा । देखते ही वे सभी गौतमस्वामी के साथ चले। गौतमस्वामी ने स्वलब्धि से अंगूठा पात्र में रखकर सभी को परमान्न (खीर) का पारणा कराया । तथा सभी तापसों को साथ लेकर गौतमस्वामी प्रभु के पास
कर्म की गति न्यारी
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