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बाद जब बहन साध्वीयां बाह्मी-सुंदरी ने "वीरा मारा गज थकी उतरो, गज चढे केवल न होय रे" ये शब्द कहे। ये शब्द सुनकर सावधान बने बाहुबलीजी प्रभु के पास वंदनार्थ जाने के लिए पैर उठाते हैं इतने में ही केवलज्ञान प्रकट हो जाता है ।
(३) कुरगडु महात्मा को केवलज्ञान-राजपाट का त्याग करके दीक्षा लेकर साधु बने हुए कुरगड महात्मा क्षुधावेदनीय के तीव्र उदय से तपश्चर्या नहीं कर सकते थे। आहार-भोजन नित्य करना ही पड़ता था। एक दिन आहार में चावल और गुड़ का पानी ऐसा ही कुछ लाकर गोचरी साथी बड़े मुनि भगवन्तो को दिखाई । साथी अन्य मुनिगण मासक्षमण (१ महिने के उपवास) की तपश्चर्या कर रहे थे । उन्हें कुर गड्ड मुनि का नित्य भोजन करना पसन्द नहीं था। अत: थोड़े क्रोधावेश में आकर कुरगड मुनि के लाए हुए आहार में थूक दिया। फिर भी कुरगड्डु मुनि महात्मा एक तरफ जाकर बैठकर उसी आहार का सेवन करने लगे, और उसमें भी कफश्लेष्म मिश्रित उसी पाहार के ग्रास को सर्वप्रथम खाने लगे। मन में तपश्चर्या न करने का बड़ा भारी दुःख था। पश्चाताप की धारा में प्राहार की क्रिया चलती रही.
और आत्मा शुद्ध अध्यवसाय की धारा में क्षपक श्रेणि पर चढ़ गई। ध्यानानल की ज्वाला में घाती कर्म को सभी प्रकृतियां जल कर भस्म हो गई। आत्मा पर से अनादि के कर्म के प्रावरण टल गए और महात्मा केवलज्ञान पा गए। वीतरागीकेवलज्ञानी-सर्वज्ञ बन गए।
लग्न मंडप में केवलज्ञान-पृथ्वीचन्द्र केवली के चरित्र में शंख और कलावती के भव से लेकर २१ भवों का वर्णन किया गया है। अन्तिम भव में जबकि पृथ्वीचन्द्र-गुणसागर बने हुए हैं तब लग्न मण्डप में बैठे है, हस्त-मिलाप हुअा है । लग्न के फेरे अग्नि के सामने लगाए जा रहे हैं लग्न कराने वाला विष “सावधान" के शब्दों का बार-बार प्रयोग करता जा रहा है। यह सारा चित्र प्रांखों के सामने खड़ा हो गया। पूर्व संस्कारों से सुसंस्कृत प्रात्मा जागृत हो गई, लग्न के ही प्रसंग को ध्यान की साधना का क्षेत्र बना दिया। बाहरी स्वरूप से लग्न की क्रिया चलती रही और दूसरी तरफ अन्तर क्रिया में प्रात्मा सहज ध्यान की कक्षा में चढ़ गई । आत्म स्वरूप का ध्यान तीव्र बनते ही क्षपकश्रेणि पर चढ़ गए और तीव्र ध्यानानल में कर्म जल जलकर चकचूर होते जा रहे थे और देखते ही देखते महात्मा प्रथ्वीचन्द्र को केवलज्ञान प्रकट हो गया। सर्वज्ञ-सर्वदर्शी बन गए। लग्न के वरराजा सर्वज्ञ वीतरागी बन गए।
कपिल केवली-भगवान महावीर स्वामी ने अपनी अन्तिम देशना में कपिल केवली के कथानक का जिक्र किया है। वित्र कुल का कपिल छोटी आयु में अभ्यासार्थ पण्डित के घर गया था। श्रीमन्त शेठ के यहां किये गए भोजन के प्रबन्ध के कारण प्रतिदिन भोजनार्थ जाते कपिल का दासी पुत्री से प्रेम हो गया। प्रेम का संसार
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कर्म की गति न्यारी