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________________ करना ही चाहिए। उसके लिए साहित्य का मुद्रण कराना यह भी ज्ञानाचार की उपासना है । शर्त यही कि वह साहित्य उच्च कक्षा का हो । हल्का न हो। सात्विक विचारधारा की पुष्टि करने वाला हो सच ही कहा है कि-“सा विद्या या विमुक्तये" विद्या वही है जो मुक्ति के लिये हो । “ज्ञानस्य फलं विरति" ज्ञान का फल यही है कि वह विरति को प्राप्त करावे । विरति अर्थात् पाप की निवत्ति । यदि ज्ञान पाप की निवृत्ति न करावे तो क्या फायदा ? उमास्वाति महाराज ने तत्त्वार्थाधिगम सूत्र की प्राद्यकारिकाओं की प्रथम कारिका में कहा है कि सम्यग्दर्शनशुद्ध यो ज्ञानं विरतिमेव चाप्नोति । दुःख निमित्तमपिदं तेन सुलब्धं भवति जन्म ॥ सम्यग् दर्शन अर्थात् सच्ची श्रद्धा से युक्त ऐसा जो ज्ञान वह यदि विरति (पाप निवृत्ति) को प्राप्त करावे तो दुःख से प्राप्त हो सके ऐसा यह मनुष्य जन्म भी सुलब्ध-सुलभ हो सकता है । प्रतः शक्कर मिश्रित दूध जिस तरह मधुर बनता है उसी तरह ज्ञान भी सम्यग् दर्शन-सच्ची श्रद्धा से युक्त हो तो ही उपादेय एवं उपकारी बनता है । अन्यथा मिथ्या ज्ञान घातक बनता है। इसीलिए ज्ञान के विषय में सम्यग् ज्ञान की महत्ता है। सम्यग् शास्त्रों का पुस्तकों का मुद्रण कराना, मुद्रण में उचित सहयोग प्रदान करके प्रचार-प्रसार करना-करवाना यह भी ज्ञानाचार की उपासना है । ज्ञान योग की साधना है। सम्यग् ज्ञान एवं मिथ्याज्ञान सच्ची श्रद्धा पूर्वक सही ज्ञान जो हो उसे सम्यग् ज्ञान कहते हैं । अर्थात् जीवादि तत्त्वों के यर्थार्थ-वास्तविक ज्ञान को सम्यग् ज्ञान कहते हैं। परन्तु यह वास्तविकता, यथार्थता या सत्यता स्वनिर्मित या कल्पित नहीं होनी चाहिए । अपितु सर्वज्ञोपदिष्ट वस्तुगत वास्तविकता होनी चाहिए परन्तु जैसी वस्तु है वैसा स्वरूप हमें कहना चाहिए । इसीलिए कहा है कि Right is might but might may not be Right जो सत्य है वही मेरा है परन्तु जो मेरा है वह सत्य नहीं भी हो सकता है । सम्यग् दृष्टि के विचार ऐसे होने चाहिए । हम वस्तु को सही न्याय दे सकें इसलिए सम्यग् दर्शन एवं सम्यग् ज्ञान की पूरी आवश्यकता रहती है । जीव तत्त्व हो या मोक्ष तत्त्व हो किसी भी तत्त्व का वही स्वरूप हमें मानना या जानना चाहिए जो सर्वज्ञोपदिष्ट हो, सर्वज्ञ कथित शास्त्र निर्दिष्ट हो, न कि स्वकपोल कल्पित हो, या स्वमति की नीपज न हो। तभी ही वह ज्ञान सम्यग् ज्ञान कहलाएगा। इसीलिए मागम शास्त्र में सम्यग् दर्शन की व्याख्या बताते हुए कहा है कि-"जं जिणेहि पवेइयं तमेव निःसंकं सच्च" जो सर्वज्ञ ऐसे जिनेश्वर भगवंतो के द्वारा प्ररूपित किया कर्म की गति न्यारी २७९
SR No.002479
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherJain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha
Publication Year
Total Pages76
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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