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लहरों की तरह उमडता था । कितना श्रद्भुत ज्ञान का क्षयोपशम था । सचमुच वे कलिकाल सर्वज्ञ के रूप में अमर बनें ।
१४४४ ग्रन्थों के रचयिता श्राचार्य हरिभद्रसूरि - ५० वर्ष की आयु में ब्राह्मण हरिभद्र पुरोहित ने चमत्कारिक निमित्त से जैन दीक्षा ग्रहण की, एक छोटी बाल साध्वी के अभ्यास किये जाते श्लोक को सुनकर उनका मन ज्ञान की गहराई में चला गया । श्राचार्य श्री के पास श्लोकार्थ समझकर सर्वस्व समर्पित करके उनके शिष्य रूप में साधु बन गए । बड़ी आयु में भी सर्व धर्म-दर्शनों का परिशीलन करके उन्होंने न्यायादि के उच्च कोटि के ग्रन्थ लिखे । ज्ञान की इस साधना में उन्होंने करीब १४४४ नये ग्रन्थों की रचना की, ऐसे महापुरुष ज्ञानाकाश द्वितीय सूर्य समान तेजस्वी बनें ।
महा महोपाध्याय यशोविजयजी महाराज – एक माता अपने बालक को लेकर रोज जिन मन्दिर दर्शन करने जाती थी, दर्शन करके पास के उपाश्रय में गुरु महाराज के पास भक्तामर स्तोत्र का स्मरण करती थी । माता ने ऐसा नियम बनाया था कि भक्तामर स्तोत्र का स्मरण करके ही मुंह में पानी डालना । नियम की कसोटी होती है । एक दिन काफी तेज वर्षा हुई, वर्षा रुकी ही नहीं और माता मन्दिर न जा सकी। योगानुयोग बरसती हुई तेज बारिश में ५-७ दिन बीत गए । माता के सातों दिन उपवास ही हुए । बालक ने पूछा मां ! तू क्यों कुछ खाती नहीं है ? माता ने कहा बेटा तू छोटा है तू इसकी चिन्ता मत कर, तुझे समझ नहीं पड़ेगी बालक ने हठ पकड़ी और कारण जानने की कोशिश की तब माता ने कहा, मेरा नियम है कि भक्तामर का पाठ सुनकर ही पानी पीती हूं। कई दिनों से तेज बारिश होने के कारण भक्तामर सुन नहीं सकी इसलिए मैं नियम का पालन करती हुई कुछ भी नहीं खाती-पीती । बालक ने श्राश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा-मां ! यदि ऐसा था तो मुझे इतने दिन से क्यों नहीं कहा ? इसमें कौन सी बड़ी बात थी भक्तामर स्तोत्र मैं ही सुना देता । इतना कहकर बालक ने भक्तामर स्तोत्र बोलना शुरू कर दिया, माता हाथ जोड़कर भावपूर्वक सुनने लगी । पारणा करके माता बालक की अद्भुत स्मरण शक्ति पर विस्मय प्रकट करने लगी । भक्तामर स्तोत्र सुनने के लिए मेरे साथ प्राता था, और सुनते मात्र से इसे सारा स्तोत्र याद रह गया । दूसरे दिन गुरु महाराज के पास जाकर सारी घटना सुनाई । गुरु महाराज ने कहा, माताजी ! ऐसे बालक को शासन के लिए अर्पित कर दो, यह पढ़-लिखकर महान् विद्वान बनेगा, जगत् का कल्याण करेगा । ठीक वैसा ही हुआ ।
अल्पवय में ही साधुत्व विद्वानों के धाम काशी नगरी में
कर्म की गति न्यारी
स्वीकार कर ज्ञानोपार्जन में तल्लीन बन गए । पहुंचे और प्रगाध ज्ञान प्राप्त किया । सत्रहवीं
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