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________________ के इर्द-गिर्द चारों तरफ घूमते थे-नाचते थे। इस तरह सुबह से लेकर शाम तक सारा दिन नाचते रहे। प्राचार्यश्री भी उन्हें देखकर प्रसन्न थे। सोचते थे-वाह ! अनपढ़ होते हुए भी ये कितने खुश हैं । इस तरह स्वयं दिनभर सोचते रहे। सूर्यास्त होते ही सभी गाँव वाले फल-नैवेद्य को प्रसाद रूप से लेकर खा-पीकर घर लौट गए। वहां कोई भी नहीं था। उस स्तंभ के ऊपर कोमा आकर बैठा और काँव-काँव चिल्लाने लगा। वह दृश्य देख रहे आचार्य के मन में आश्चर्यकारी परिवर्तन प्राया। सोचते ही रह गए । अरे ! अभी थोड़ी देर पहले इस स्तंभ की कितनी कीमत थी? क्या मानसम्मान था ? और अब सब चले गए, कोई नहीं है तो अकेले इस स्तंभ को कौन पूछता है ? कौमा काँव-काव करता है। अकेला एक होते हुए इस स्तंभ की शोभा हजारों लोगों से थी। उसी तरह मेरी कीमत कब तक थी ? मुझे प्राचार्य कौन कहता था ? मुझे बडा कौन मानते थे ? अरे........हो ! ५०० शिष्य मुझे प्राचार्य गुरूदेव कहते थे। मुझे पूजते थे । आखिर क्यों ? मेरे में ज्ञान है, विद्वता है । अतः पूजते थे, मान-सम्मान देते थे। प्राज मैं अकेला यहां आया हूँ। अब मुझे प्राचार्य कौन कहेगा ? “विद्वान सर्वत्र पूज्यते" की कहावत उन्हें याद आई । ओहो ! मैं विद्वता के कारण पूजनीय था। अत: मेरी नहीं ज्ञान की महिमा अपरंपार है। अरे रे........! मुझे ऐसे खराब विचार क्यों आए ? मैं क्षमा चाहता हुँ........मिच्छामिदुक्कडं कहते हुए वे पुन: शाम को उपाश्रय पाए। पुनः शिष्यों को पढ़ाने में लीन हो गए । ज्ञानध्यान-स्वाध्याय-चिन्तन एवं प्रश्नोत्तरी में लीन हो गए। काल बीतता गया। प्रायुष्य समाप्त हुमा । निर्मल चारित्र के प्राधार पर स्वर्ग में गए। . स्वर्ग से च्युत होकर वे इसी धरती पर एक ग्वाल के घर पुत्र रूप से जन्मे । युवावस्था में साधु, संत महात्माओं का समागम हुमा । सत्संग का रंग लगा। मुनि महात्मा के वैराग्योपदेश से वासित मन वाले हुए। शुभ दिन मुनिमहात्मा के पास प्रव्रज्या स्वीकार कर साधु बने । गुरू महाराज के पास पाठ लेकर अच्छी तरह पढने लगे। क्षयोपशम और शक्ति इतनी अच्छी थी कि रोज के ५०-१०० श्लोक कंठस्थ करना उनके लिए खेल की बात थी। खूब होशियार बुद्धिमान एवं तेज स्मृति वाले तेजस्वी थे। पढते ही गए। पूर्व जन्म का ज्ञान का क्षयोपशम और संस्कार काफी अच्छे उदय में पाए परिणाम स्वरूप काफी अच्छी तरह पढ़ते गए। कर्म के उदय की स्थिती पूर्व जन्म में प्राचार्य महाराज के भव में १ दिन में जो भारी ज्ञानावरणीय कर्म उपार्जित किया था, वह आज इस जन्म में उदय में आया। कर्म उदय में २५८ कर्म की गति न्यारी
SR No.002479
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherJain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha
Publication Year
Total Pages76
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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