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सुयोग्य स्थान पर नहीं पहनती है तो वह भी हास्यास्पद बनती है। उसी तरह ईश्वर में जो सृष्टि कर्तृत्व-फल दातृत्व आदि सिद्ध होते ही नहीं है उनको जबरदस्ती ईश्वर पर बैठाने से ईश्वर का स्वरूप हास्यास्पद-विकृत सिद्ध होता है । फिर ऐसे विकृत स्वरूप वाले, ईश्वर की हम उपासना, भक्ति-नामस्मरण-ध्यानादि कैसे करें ? पत्नी को दुराचारिणी दुश्चरित्र देखकर फिर उसके प्रति प्रेम कैसे उत्पन्न होगा ? इसी तरह विडंबना युक्त हास्यास्पद विकृत स्वरूप ईश्वर का देखते हुए उसके प्रति आदरपूज्य-भाव, भक्ति भाव कैसे उत्पन्न होंगे ? संभव ही नहीं है।
अत: ईश्वर को पूर्ण शुद्ध स्वरूप में स्वीकारना अनिवार्य है। उसे सृष्टिकर्ता संहारकर्ता न मानकर सर्व कर्ममुक्त, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, राग-द्वेष रहित-वीतराग, सिद्धबुद्ध-मुक्त मानना जरूरी है। मोक्षमार्ग का उपदेष्टा मानना चाहिए। प्रात्मा का ही पूर्ण शुद्ध स्वरूप है। विद्यानंदी ने यही कहा है- .
मोक्ष मार्गस्य नेतारं, भेत्तारं कर्म भूभृताम् । ज्ञातारं विश्व तत्त्वानां, तीर्थेशं स्मृतिमानये ॥
जो मोक्षमार्ग दिखाने वाले है, गन्तव्य मोक्ष तक ले जाने में सहायक प्रालम्बन है, कर्मों के पर्वतों को जिसने तोड़ दिये हैं, तथा जो समस्त विश्व के सभी तत्त्वो पदार्थों के ज्ञाता सर्वज्ञ है ऐसे तीर्थेश-तीर्थंकर को मैं स्मृति पटल में स्मरण करता हुँ । बात यही सही है । जो अरिहंत हो वही भगवान कहलाने योग्य है। परन्तु जो भगवान हो वह अरिहंत नहीं भी कहला सकते हैं। चूकि अरिहंत अरि = काम क्रोधादि शत्रु (काम-क्रोध-मान-माया-लोभ-राग द्वषादि), हंत = नाश अर्थात् जिन्होंने रागद्वेषादि आत्म शत्रुनों का नाश-(क्षय) किया है ऐसे अरिहंत ही भगवान-ईश्वर कहलाने योग्य है।
ईश्वर ही नहीं परमेश्वर वे ही कहे जाएंगे। परम + ईश्वर = परमेश्वर । परम+आत्मा = परमात्मा । अत: जैन निरीश्वरवादी नहीं परमेश्वरवादी हैं । सृष्टिकर्तृक ईश्वर को जैन बहीं स्वीकारते हैं, इस अपेक्षा से जैनों को निरीश्वरवादी कहना उचित है । परन्तु साथ ही साथ परम शुद्ध प्रात्मा को परमेश्वर कहते हुए जैनों को परमेश्वरवादी भी कहना होगा। परमोच्च-सर्वोच्च-परम शुद्ध-पूर्ण वीतराग परमात्मा को परमेश्वर मानने वाले जैनों ने प्रभु के स्वरूप में हास्यास्पदता या विकृति खड़ी नहीं की। अत: भक्ति उपासना में सदा ही परमात्मभक्ति करने वाले जैनों को नास्तिक कहना भी मूर्खता होगी।
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कर्म की गति न्यारी