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________________ कार्य कई प्रकार के हैं । इस तरह ईश्वर की इच्छात्रों के विषय होने से ईश्वर को भी अनित्य मानना पडेगा । क्या ईश्वर को कर्ता या निमित्त कारण मानें ? यदि ईश्वर ने पृथ्वी - पानी - श्रग्नि वायु के परमाणुत्रों से तथा प्रदृष्ट (पूर्व कर्म संस्कार) को ध्यान में रखकर यदि जीवों के कल्याण हेतु इस जगत की सृष्टि की है और वह भी नित्य विद्यमान दिशा, काल श्रीर श्राकाश में की है तो फिर ईश्वर को अधिक से अधिक निमित्त कारण (Efficient Cause) मान सकते हैं परन्तु सृष्टि कर्ता नहीं कहा जा सकता; क्योंकि न्यायवैशेषिक मतानुसार ईश्वर इस जगत को शून्य से उत्पन्न नहीं करता है । अच्छा इस तरह ईश्वर को निमित्त कारण मानें तो फिर ईश्वर जीवों की शुभाशुभ कार्य प्रवृत्ति में निमित्त नहीं बनेगा । चूंकि प्रदृष्ट ही जीवों के लिए कारण है | अपने पूर्वकृत कर्म संस्कार रूप प्रदृष्ट के लिए जीव स्वयं उत्तरदायी है ईश्वर नहीं । इस तरह जीव स्वयं अपने शुभाशुभ का कर्ता हैं तो उसे ही भक्ता भी मानना ही पडेगा । कालानुसार वह जीव उस प्रदुष्ट (कर्म) के अतः ईश्वर का जीवों के शुभाशुभ कर्म एवं फल के विषय में रहेगा । अतः ईश्वर न तो सृष्टि कर्ता और न ही कर्म फल दाता सिद्ध होता है । फल को भोगेगा । हस्तक्षेप फिर नहीं शुद्ध परमेश्वर स्वरूप । इतनी सुदीर्घ एवं सुविस्तृत तर्क युक्ति पुरस्सर चर्चा से यह निष्कर्ष निकलता है कि ईश्वर कोई ऐसी सत्ता नहीं है जो सृष्टि की रचना करता है, प्रलय-संहारादि करता है - यह किसी भी रूप में सिद्ध हो नहीं सकता है । उसी तरह ईश्वर कर्म फल दाता के रूप में भी सिद्ध नहीं होता है उसी तरह ऐसे ईश्वर के विषय में दिये गए विशेषण जगत का कर्ता, एक ही है, वही नित्य है, सर्वव्यापी तथा स्वतन्त्र है । ये कोई विशेषण भी सिद्ध नहीं होते । परस्पर विरोधाभाष इन विशेषणों से खडा होता है । जैसे तराजु नें चूहों को तोलना तर्क युक्ति की तुला में बैठाना कठिन है, असंभवसा है । एक सिद्ध करने जाओ तो दूसरे टूटते हैं । दूसरे सिद्ध करने जाओ तो तीसरा प्रसिद्ध होता है । इस तरह यह चर्चा तो काफी लम्बी-चौडी है । परन्तु मूल में ही जो सृष्टि कर्तृत्व माना है वही सिद्ध नहीं हो सकता है तो दूसरी बातें उसी के आधार पर सिद्ध नहीं होती है । कठिन है वैसे ही इन विशेषणों का अतः निरीश्वरवादी जैनों का कहना है कि बलात् ईश्वर पर कर्ता- नित्यएकादि विशेषण बैठाने से दोष आता है और ये विशेषण शोभास्पद नहीं ठहरते अपितु ईश्वर की विडंबना करते हैं । योग्य ग्राभूषणों को स्वरूपवान स्त्री भी यदि कर्म की गति न्यारी ६७
SR No.002478
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 02 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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