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________________ हो नहीं सकता है । तो क्या आप संहार - प्रलय के लिए दानवी राक्षसी क्रूरता का अस्तित्व ईश्वर में मानेंगे ? यह तो ईश्वर का उपहास करने की चरम सीमा हो जाएगी। क्रूर - दानव - राक्षस भी कहना और ईश्वर भी कहना यह मूर्ख व्यक्ति भी नहीं स्वीकारेगा । अच्छा श्राप सृष्टि रचना और प्रलय कारक संहार दोनों ईश्वर के कार्य मानोगे तो ईश्वर में नित्यत्व सिद्ध नहीं होगा । श्रनित्यत्व श्रा जाएगा । अच्छा दोनों क्रिया के कर्ता भिन्न-भिन्न मानोगे तो आपका एकत्व पक्ष चला जाएगा। एक ईश्वर नहीं रहेगा । नाना ईश्वर मानोगे तो अनेकेश्वरवादी कहे जानोंगे। यह तो पैर के नीचे की भी जमीन जा रही है । क्या ईश्वर जिस स्वभाव से सृष्टि की रचना करता है उसी स्वभाव से संहार करता है या भिन्न स्वभाव से ? यदि ईश्वर को सदा एक ही स्वभाव वाला मानोगे तो दो भिन्न-भिन्न कार्यों की संभावना ही नहीं रहेगी । सृष्टि रचना और प्रलय दोनों ही ठीक एक दूसरे के सर्वथा विपरीत कार्य हैं । अतः एक ही स्वभाव से दोनों विरोधी कार्य हो नहीं सकते तथा ईश्वर को एकान्त नित्य मानने पर सृष्टि की तरह संहार बन नहीं पाएगा। यदि ईश्वर सृष्टि रचना तथा संहारादि अनेक कार्यों को करेगा तो वह अनित्य हो जाएगा । अनेक कार्य तो आप स्वीकारते हैं। सिर्फ एक सृष्टि रचना ही नहीं अपितु पालन श्रौर संहार भी श्राप ईश्वर के ही कार्य के रूप में स्वीकारते हैं तो फिर अनेक कार्य हुए। और अनेक कार्यों के कारण ईश्वर में अनित्यता श्रा जाएगी । अनेक कार्य और एकान्त नित्य दोनों परस्पर विरोधी हैं यदि ईश्वर के स्वभाव में भेद नहीं है तो सभी कार्य एक साथ ही हो जायेंगे तथा एक स्वभाव से अनेक कार्य संभव नहीं हैं । चूंकि कार्यानुरूप स्वभाव एवं स्वभावानुरूप कार्य होता है | स्वभाव भेद प्रनित्यता का लक्षण है । आप ही कहते हैं कि ईश्वर सृष्टि रचना में रजोगुण, संहार में तमोगुण, एवं स्थिति में सत्त्वगुण रूप से प्रवृत्ति करता है । इस तरह अनेक अवस्थाओं एवं स्वभावों के भेद एवं परिवर्तन से ईश्वर को एकान्त नित्य कैसे मान सकते हैं ? मान लो कि ईश्वर नित्य है तो उसमें रही हुई इच्छा भी नित्य होगी । इच्छा नित्य है तो सृष्टि रचना का कार्य नित्य चलते ही रहना चाहिए । इच्छा ईश्वर को सदा काल प्रवृत्त करती ही रहेगी। दूसरी तरफ आप ईश्वर में बुद्धिइच्छा - प्रयत्न - संख्या-परिमाण - पृथक्त्व-संयोग और विभाग नामक आठ गुणों को स्वीकारते हो । ईश्वर की नित्यता के साथ इच्छा की भी सदा नित्यता ईश्वर में स्वीकारें तो नाना कार्यों के प्रावार पर इच्छाएं भी भिन्न-भिन्न विषयक माननी पडेगी । चूंकि कर्म की गति न्यारी ६६
SR No.002478
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 02 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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