________________
कृतकृत्य है। कृतकृत्य ईश्वर का प्रयोजन या स्वार्थ भी कैसे संभव हो सकता है ? स्वार्थी कहना ईश्वर की ज्यादा विडंबना करने जैसी बात होगी। अच्छा यदि करुणा बुद्धि से मानें तो भी संभव नहीं है । क्योकि दुःखों को दूर करने की इच्छा को करुणा कहते हैं। यह करुणा की व्याख्या गलत तो नहीं है। जबकि सृष्टि रचना के पहले जीवों के इन्द्रियां, शरीर और विषयादि नहीं थे तो फिर जीवों के दुःख ही कहां था ? और जब दुःख ही नहीं था तो फिर किस दुःख को दूर करने की करुणा ईश्वर में उत्पन्न हुई ? फिर आप यह कैसे कह सकते हैं कि करुणा प्रेरक इच्छा से प्रेरित होकर ईश्वर ने सृष्टि बनाई ?
अच्छा यदि आप ऐसा कहो कि सृष्टि रचना करने के बाद दु:खी जीवों को देख कर ईश्वर में करुणा का भाव उत्पन्न हुआ। तो क्या यह इतरेतराश्रय दोष नहीं कहलाएगा ? ईश्वर दुःखी जीवों को बनाए और फिर उन पर करुणा जगाए । उस करुणा से अनुग्रह करे । अरे भगवान ! ऐसी समुद्री प्रदक्षिणा से क्या लाभ ? इसकी अपेक्षा तो आप सृष्टि निर्माण करने का पक्ष ही न स्वीकारो तो क्या आपत्ति है ? करुणा से जगत् की रचना और जगत् रचना से पुन: करुणा ऐसा यदि दोषयुक्त भी मानोगे तो तो अण्डे-मुर्गी की तरह यह क्रम सदा ही चलता रहेगा। इसका अन्त ही नहीं पाएगा। करुणा से जगत्, जगत् से पुनः करुणा, पुनः करुणा से जगत् रचना, पुनः करुणा पुनः जगत् । इस तरह सदा ही करुणा और सदा ही जगत् की रचना चलती ही रहेगी। अच्छा यह बात यदि आपको आपकी पक्ष पुष्टि की लगे भी सही परन्तु सदा ही करुणा और सदा ही जगत रचना यदि चलती ही रहेगी तो ईश्वर संहारप्रलय कब करेगा? या तो आपको दोनों में से एक पक्ष स्वीकारना पडेगा। परन्तु सृष्टि ही नहीं बनी होगी तो संहार किसका करेगा? सृष्टि की रचना ही सिद्ध नहीं हो रही है तो संहार-प्रलय की बात किसकी करें ?
दूसरी तरफ सृष्टि और संहार दोनों एक साथ स्वीकारें तो भी संभव नहीं है। कुम्हार घडे बनाता जाय और फोडता जाय ? मां बच्चे को जन्म देती जाये और फिर मारती जाये । फिर जन्म दे और फिर मार दे तो निरर्थक प्रसव पीड़ा सहन करने का दुःख क्यों सिर पर ले ? उसी तरह दोनों स्वभाव साथ रखकर ईश्वर कार्य करे तो सृष्टि निर्माण और संहार दोनों एक साथ संभव भी कैसे हो सकता है ? सष्टि रचना निरर्थक निष्प्रयोजन सिद्ध होगी। आप यदि यह कहें कि लीला-विलास मात्र के लिए ही ईश्वर ऐसा करता है-यह पक्ष स्वीकारते हैं तो फिर करुणा-अनुग्रह-निग्रहादि या सर्वज्ञत्व या सर्वशक्तिमानादि पक्ष निष्प्रयोजन सिद्ध होंगे। करुणा के रहने पर संहार मानना यह पानी में से आग निकालने के बराबर होगा। करुणा से संहार
कर्म की गति न्यारी