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अब यदि आप ईश्वर को सशरीरी मानकर कुम्हार की तरह सृष्टि का कर्ता मानते हो तो हमारा प्रश्न यह है कि ईश्वर ने अपने शरीर की रचना स्वयं बनाई या दूसरे के द्वारा ? दूसरे के द्वारा मानने पर अनवस्था दोष आएगा। यदि यह कहें कि ईश्वर ने स्व शरीर की रचना स्वयं की। तो यह बताइये कि ईश्वर ने स्व शरीर की रचना सकर्म होकर की या अकर्म होकर की ? यदि कर्म रहित हो कर की कहेंगे तो प्राकाश भी कर सकता है। वह निष्कर्म है अथवा कर्म रहित ईश्वर सामग्री के अभाव में देह रचना कैसे कर सकता है ? तो फिर सिद्धात्मा भी कर सकता है। यह मानोगे तो सिद्ध पुनः संसार में प्रा जाएगा। अत: उनका सिद्ध होना व्यर्थ सिद्ध होगा। इस तरह तो सिद्धत्व ही निरर्थक निप्रयोजन सिद्ध हो जाएगा तो कोई सिद्ध बनेगा ही नहीं।
सिद्ध बनने के लिए पुरुषार्थ भी नहीं करेगा। पुरुषार्थ धर्म प्रधान है, वह भी नहीं करेगा। इस तरह सब कुछ निरर्थक-निष्प्रयोजन सिद्ध हो जाएगा। अच्छा अकर्म ईश्वर की सामग्री के अभाव में स्व शरीर रचना ही असंभव है तो फिर सृष्टि रचना कैसे संभव हो सकती है ? सकर्म मानते हैं तो सकर्मी तो मनुष्य भी है। पशु-पक्षी भी है । सकर्मी सशरीरी सभी हैं तो ईश्वर की मनुष्यादि से भिन्नता संभव नहीं है।
अच्छा यदि ईश्वर बिना किसी प्रयोजन के जीवों के शरीरादि या सृष्टि की रचना करता है तो निष्प्रयोजन प्रवृत्ति उन्मत्त प्रवृत्ति कहलाती है। अतः ईश्वर को उन्मत्त मानने की आपत्ति पाएगी। अच्छा यदि कोई प्रयोजन है तो वह ईश्वर क्यों कहलाएगा ? ईश्वर ही अनीश्वर सिद्ध होगा। यदि अनादि शुद्ध ईश्वर भी सष्टि की रचना करता है यह मानेंगे तो भी संभव नहीं है। कारण शुद्धि रागद्वेषादि के अभाव में होती है । और रागादि के अभाव में इच्छा सिद्ध नहीं होगी। यदि इच्छा सिद्ध नहीं होती है तो इच्छा के अभाव में सृष्टि संभव नहीं है। अब क्या करेंगे ? इच्छा मानते हैं तो रागादि युक्त सकर्म ईश्वर मानना पड़ेगा और नहीं मानते हैं तो सृष्टि रचना में बाधा पाएगी। इतो व्याघ्रस्ततो तटी जैसी स्थिति में छटना मुश्किल है । अतः ईश्वर के ऊपर सृष्टि कर्तृत्व का बोझ डालकर ईश्वर का स्वरूप विकृत करने का कुकर्म न करें इसी में हमारी सज्जनता है।
करुणा में दोष
बुद्धिमानों की प्रवृत्ति प्रयोजन अथवा करुणा बुद्धिपूर्वक ही होती है। अत: यहां प्रश्न होता है कि ईश्वर स्वार्थ से सृष्टि निर्माण में प्रवृत्त होता है या करुणावृत्ति से ? स्वार्थ अथवा प्रयोजन मानें तो वह ईश्वर में कैसे घटेगी ? चूंकि ईश्वर तो
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कर्म की गति न्यारी