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________________ पौर ब्रह्म ज्ञान में कोई अन्तर ही नहीं है ? दूसरी तरफ ईश्वर को फलदाता मानकर भी अनुग्रह-निग्रह समर्थ भी मानना कहां तक सुसंगत है ? तो फिर करुणावान दयालु गुण प्रधान ईश्वर सभी जीवों पर एक साथ अनुग्रह क्यों नहीं कर देता ? यदि अनुग्रह नहीं करता है तो उसकी करुणा निरर्थक जाएगी। दूसरी तरफ दानवी सृष्टि असूर आदि भी ईश्वर द्वारा ही उत्पन्न किये हैं ऐसा मानते हैं तो फिर ईश्वर ने उनका निग्रह क्यों नहीं किया ? पहले दानवों को उत्पन्न करना और फिर निग्रह करना । फिर वही बात । विष्ठा में हाथ बिगाडो और धोने के लिए काशी गगा जाम्रो । ईश्वर जब सर्वज्ञ थे, सर्व वेत्ता थे, सब कुछ जानते थे तो फिर ईश्वरवाद जगत् कर्तृत्ववाद न स्वीकारने वाले और इसका विरोध करने वाले हमारे जैसों का क्यों निर्माण किया है ? क्या यह ईश्वर की भूल नहीं है ? यदि आप ईश्वर की सष्टि में भूल निकालते हैं तो ईश्वर की सर्वज्ञता चली जाएगी। फिर तो भूल करें वह भी भगवान और भगवान भी भूल करता है यह स्वीकारना पड़ेगा। या हम ऐसा कहेंगे कि हमारा क्या कसूर है ? ईश्वर हमारे द्वारा ही यह विरोध करवा रहा है। हम तो निर्दोष हैं। कठपुतली की तरह हमको नचाता हुआ ईश्वर ही हमारे द्वारा यह करवाता है तो ईश्वर ही कारण ठहरेगा। ईश्वर को कैसा माने-इस द्विधा में आप पड़े हैं। अब इस भंवर में से बाहर कैसे निकलना यह एक समस्या है। जीव को माता की कुक्षी में शुक्र-शोणित ग्रहण कर पिण्ड बनाकर देह रूप में परिणत करने के कारण में कर्म ही कारण है। ईश्वर को न तो कारण मान सकते है और न ही सामग्री। अतः यह बात माननी ही पड़ेगी कि जीव कर्म रूप उपकरण के द्वारा ही देह का निर्माण करता है । अपना संसार जीव स्वयं ही बनाता है और चलाता है। इस तरह संसार में अनन्त संसारी जीव कर्माधीन हैं। सभी कर्म संयोगवश अपना-अपना संसार निर्माण करते हैं और चलाते हैं। बस ईश्वर को कर्तृत्व, फलदाता आदि के रूप में बीच में स्वीकारने की आवश्यकता नहीं है । बलात् जब दस्ती करने पर ईश्वरस्वरूप विकृत होता है । ईश्वरकर्तृत्व की निष्प्रयोजनता निष्कर्म = कर्म रहित जीव शरीरादि नहीं बनाता है। चूंकि वह निश्चेष्ट है। जो प्राकाशादि के समान निश्चेष्ट हो वह प्रारम्भ कार्य में असमर्थ होता है । कर्म रहित जीव जो सिद्धात्मा-मुक्तात्मा कहलाता है। वह निश्चेष्ट निष्क्रिय है तथा वहां कर्म उपकरण भी नहीं है अत: देह निर्माण या संसार निर्माण कुछ भी संभव नहीं है । जहाँ कर्म उपकरण है वहीं संभव है। कर्म की गति न्यारी
SR No.002478
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 02 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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