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________________ के लिए अनाज-सब्जी-पानी-अग्नि आदि कई सामग्री की आवश्यकता है उसी तरह सृष्टि निर्माण करने के लिए ईश्वर को भी जीव-कर्मादि आवश्यक उपकरण या सामग्री की आवश्यकता पड़ेगी। जबकि जीव कर्मादि सामग्री के अभाव में ईश्वर सृष्टि रचना करे यह संभव नहीं है। यदि आप सामग्री के अभाव में सृष्टि मानते हो तो अनाज-पानी-अग्नि प्रादि सामग्री के अभाव में रसोई बनाकर बताइए, या मिट्टी-पानी आदि किसी भी सामग्री के बिना घड़ा बनाकर बताइये । इस तरह संसार में अनर्थ की परम्परा चल पड़ेगी । अच्छा तो फिर कर्म फल देने में जीवों में कर्म का अस्तित्व क्यों माना है ? क्यों ईश्वर किसी को कर्म का फल देते समय उस जीव के कर्मानुसार फल देता है ऐसा भी क्यों कहते हैं। फल देने के लिए कर्म भी आवश्यक सामग्री हो गई। यह तो आप खुद स्वीकार करके ही बोल रहे है । आपके शास्त्र कह रहे हैं कि-ईश्वर जीव के कर्मानुसार फल देता है। मतलब आपने ईश्वर निर्मित सृष्टि के लिए जीव और कर्म को अनुत्पन्न रूप से आवश्यक सामग्री मान ली है। और यदि नहीं मानते हैं तो ईश्वर का कृतिमत्व सामग्री के प्रभाव में निरर्थक सिद्ध हो जाएगा। दूसरी तरफ सामग्री को स्वीकारते हैं तो भी ईश्वर का कृतिमत्व निरर्थक-निष्प्रयोजन सिद्ध हो जाता है । चूंकि जो सामग्री या उपकरण के रूप में जीव-कर्म को स्वीकारते हो वे ही परस्पर संयोग-वियोग से संसार की विचित्रता का निर्माण कर लेते हैं । जीव स्वयं भी सक्रिय सचेतन द्रव्य हैं, फिर ईश्वर के कृतिमत्व की आवश्यकता ही कहाँ पड़ी ? अत: जीव कर्म संयोग जन्य वैचित्र्य रूप संसार के लिए ईश्वर को कारण मानना युक्ति संगत भी नहीं लगता। दूसरी तरफ ईश्वर ही जीवों के पास शुभाशुभ कर्म कराये और फिर वही उसके शुभाशुभ कर्म का फल देने वाला बने । सिर्फ अपने ईश्वरत्व-स्वामित्व की रक्षा के लिए फलदाता बने, यह द्रविड प्राणायाम क्यों करते हैं ? विष्टा में हाथ-पैर गंदा करके फिर गंगा में धोने के लिए काशी यात्रा करना यह कहां तक युक्ति संगत है ? दूसरी तरफ "जीवो ब्रह्म व नाऽपरः” या “जीवो ममैवांऽशः" जीव ब्रह्म स्वरूप ही है कोई अलग नहीं है । या जीव मेरा ही अंश है अन्य नहीं है। यह कहने वाले भी जब सृष्टिकर्ता ईश्वर को फलदाता भी कहते हैं तो ईश्वर फल देगा किसको ? जबकि उससे भिन्न तो जीव कोई है ही नहीं। अच्छा जब ईश्वरातिरिक्त जीव कोई है ही नही तो फिर कर्म किये किसने ? करनेवाला ही नहीं है और फिर भी कर्म मानना और उसके आधार पर फल दाता ईश्वर फल देता है यह मानना प्रभाव पर भाव की परम्परा मानने जैसा है । या रस्सी को सर्प मानने का भ्रम ज्ञान है । तो क्या भ्रम ज्ञान कर्म की गति न्यारी
SR No.002478
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 02 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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