SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 100
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन दर्शन अवतारवाद भी नहीं स्वीकारता । मुक्तात्मा मोक्ष से पुनः लौटकर संसार में नहीं पाती। अपूर्ण पूर्ण बनता है। रागी-वीतरागी बनता है । अशुद्ध-शुद्ध बनता है। उसी तरह संसारी सिद्ध बनता है । बुद्ध-मुक्त बनता है । इसका उल्टा नहीं होता। अत: सर्व कर्म बंधनों से मुक्त सिद्धात्मापुन: संसार में नहीं पाते, पुन: जन्म नही लेते। उन्हें न तो लीला करनी है, न ही अनुग्रह-निग्रह करना है, न ही सृष्टि रचनी है, न ही प्रलय करना है, न ही कर्म फल देना है। इन सब विडंबनामों से ऊपर ऊठे हुए वे सिद्ध-बुद्ध-मुक्त-कृतकृत्य-धन्य-धन्य हो चुके हैं। अत: न तो वहां कर्म बंध है, और कर्म बंध न होने से पुनरागमन नहीं है । चूंकि नीचे पतन या संसार में पुनरागमन तो कर्मजन्य है, और वहां मोक्ष में कर्म बंधादि का अभाव है। फिर अध: पतन संभव ही नहीं है। ऊपर से नीचे नहीं आते, मोक्ष से पुन: संसार में नहीं पाते हैं। अत: अवतारवाद (उतरना) नहीं स्वीकारा गया हैं। अतः संसार से एक नहीं अनेक नहीं अनन्तात्मा मोक्ष में जाती है । गई हैं, जो भी सर्वकर्म क्षय करे वह मोक्ष में जाती है। सिद्ध-बुद्ध-मुक्त बनती है। अत: जैन दर्शन अनन्तात्मवादी है। अतः अनन्तसिद्धात्मवादी है। परमात्मा बनने की ठेकेदारी एक ही ईश्वर को नहीं दी गई है। जो भी सर्वकर्म क्षय करके परमात्म स्वरूप शुद्ध स्वरूप प्राप्त करे वह परमात्मा बनती है। इसलिए परम पद को कोई भी पामर प्राप्त कर सकता है । पामर ही परम बनता है, बन सकता है। सिर्फ उसे कर्मक्षय करते हुए उन गुणस्थानों से होते हुए गुजरना पडेगा। राग-द्वषादि का क्षय हो जाएगा और सर्वज्ञता-वीतरागता प्रगट हो जाएगी, फिर सवाल ही कहां रहा ? पूर्ण परमात्मा बन गये । ऐसे परमात्मा बनने के लिए पूर्व में बने हुए परमात्मा का आलम्बन लेना, उनकी स्तुति-स्तवना करना, उनकी प्रतिमा समक्ष दर्शन-वंदन-पूजन-पूजा करना उसी पद को पाने का आलम्बन है, भक्ति मार्ग है । अतः पूजा भक्ति यह उपासना मार्ग है। जाप-नामस्मरण-ध्यान-साधना आदि कई प्रकार उपास्य की उपासना के हैं, एक भी गलत नहीं है । दर्शन-पूजा-पूजन प्रादि को गलत कहना भी गलती है, भूल है । यही मार्ग है भक्ति का-जिससे भक्त भगवान बन सकता है। स्वयं परमात्मा ने पामरात्मा को यह मार्ग दिखाते हुए परमात्मा बनने का तरीका बताया है। इस दृष्टि से सिर्फ सृष्टि कर्ता के स्वरूप में ईश्वर को न मानते हुए जैन शुद्ध पूर्ण परमेश्वर परमात्मा अरिहंत-वीतराग तीर्थकर-सर्वज्ञ को भगवान ईश्वर मानते है। ईश्वर ही नहीं परमेश्वर मानने वाले जैनों को परमेश्वरवादी-परमात्मवादी सर्वज्ञात्मवादी वीतरागवादी, सिद्धात्मवादी, आदि शब्दों से नवाजना उचित होगा। कर्म की गति न्यारी
SR No.002478
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 02 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy