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इच्छा के आधीन बता रहे तो फिर ईश्वर बड़ा हुआ कि इच्छा ? क्या ईश्वर इच्छा के आधीन है या इच्छा के आधीन ईश्वर है ? यदि ईश्वर इच्छा के प्राधीन होकर सृष्टि की रचना करता है और उसी तरह कुम्हार-कुलालादि इच्छा द्वारा प्रेरित होकर, इच्छा के प्राधीन होकर ही घट-पट बनाता है तो मनुष्य ऐसे कुम्हार और ईश्वर में क्या अन्तर रहा ? दोनों में क्या भेद रहा ? दोनों ही इच्छा के धरातल पर समान गिने जायेंगे । तो फिर मनुष्य को तो इच्छा के बन्धन से मुक्त होने के लिए, इच्छा को सीमित करने के लिए, इच्छा पर विजय पाने के लिए उपदेश दिया जाता है और ईश्वर के लिए किसी उपदेश की आवश्यकता नहीं है क्यों ? क्या इच्छा अच्छी है ? इच्छा क्या है ? इच्छा किसे कहते हैं इस विषय में उमास्वाति वाचकमुख्य पूर्वधर महापुरुष प्रशमरति में कहते हैं..- .
इच्छा, मूर्जा-कामः स्नेहो, गायं ममत्त्वमभिनन्दः । अभिलाष इत्यनेकानि रागपर्याय वचनानि ।।
इच्छा, मूर्छा, काम, स्नेह, गृद्धता, ममत्त्व, अभिनन्द, अभिलाषा इत्यादि राग के पर्यायवाची शब्द हैं। यदि इच्छा ही राग का रूपान्तर है पर्यायवाची समानार्थक शब्द है तो फिर ईश्वर को रागदि युक्त ही मानना पड़ेगा । और रागादि युक्त हुआ तो वीतरागता नहीं रहेगी। वीतरागता का धरातल भूकम्प से हिलने लगा तो फिर उस पर रही हुई ईश्वरत्व की इमारत का स्थिर रहना सम्भव नहीं है।' रागादि कर्म जन्य है । शुभाशुभ कर्म ही रागादि के कारण हैं । उत्तराध्ययन सूत्र में स्पष्ट कहा है कि-"रागो य दोषो वि य कम्म बीयं" राग-द्वेष ही कर्म के बीज हैं। इन्हीं बीजों से सारा कर्मवृक्ष खड़ा होता है। यदि ईश्वर भी रागादि कर्म कारणों के आधीन होकर इच्छा से प्रेरित होता है और संसारस्थ मनुष्य पशु-पक्षी आदि सभी जीवों की भी यही दशा है । वे भी रागादि बीज जन्य कर्म कारणों के विपाक स्वरूप इच्छादि तत्त्व से प्रेरित होकर ही प्रवृत्ति करते हैं तो फिर दोनों में अन्तर क्या रहा ?
अच्छा चलो भाई मान भी लें कि इच्छा के आधीन ईश्वर सृष्टि की रचना करता है तो ईश्वर ने एक को सुखी एक को दुःखी, एक को ऊंचा, एक को नीचा, एक को विष्ठा खाने वाला सूअर और दूसरे को मेवा-मिठाई खाने वाला क्यों बनाया ? यदि सब कुछ ईश्वर के प्राधीन है तो क्या ईश्वर अपनी सृष्टि अत्यधिक सुन्दर, निर्दोष, सर्व दोष क्षति रहित नहीं बना सकता है ? ऐसा क्यों ? वह ऐसी सृष्टि बनाए जिससे सृष्टि के मनुष्यादि भी ईश्वर को एक वाक्यता की प्रशंसा के शब्दों में
कर्म की गति न्यारी
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