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___ अतः निरीश्वरवादी का सिर्फ इतना ही अर्थ स्पष्ट होता है जो ईश्वर को सृष्टि कर्ता हर्ता, धर्ता, धाता-विधाता के रूप मेंन हीं मानता है। सिर्फ अर्थ भेद है। अत: ईश्वर विषयक मान्यता जरूर है, भले ही कर्ता के रूप में न मानकर अर्थ भेद से अन्यार्थ में माना है। चूकि अनिवार्य नहीं है कि ईश्वर को सभी सृष्टिकर्ता के रूप में ही माने ? व्याकरण आदि की दृष्टि से या व्युत्पत्ति आदि की दृष्टि से भी ईश्वर शब्द की व्युत्पत्ति सृष्टि कर्ता, हंता या नियंता आदि के रूप में ही नहीं है। अतः जैन दर्शन जो ए: स्वतंत्र धारा है उसने ईश्वर को प्रात्मगुणश्वर्य संपन्न, परम शुद्ध पद प्राप्त परमेश्वर स्वरूप में स्वीकारा है । जगत् कर्तृत्ववादी मान्यता वाला जरूर नहीं है। चूकि माया, अविद्या या प्रकृति के हाथ में अन्य दार्शनिकों ने जैसे कर्तृ शक्ति प्रदान की है उसी तरह जैन दर्शन ने कर्म के हाथ में कर्तृ शक्ति प्रदान की है और कर्म को तथा कर्म फल की लगाम ईश्वर के हाथों में न पकडाकर जीव के ही हाथ में रखी है । कर्तृत्ववादी दर्शनों ने ईश्वर का स्वरूप जितना विकृत किया है जैन दर्शन ने उतना ही विशुद्ध बताया है। अत: जगत्कर्तृत्ववाद के एक अंश के अर्थ में जैन दर्शन अनीश्वरवादी या निरीश्वरवादी कहा भी जाता हो तो भी अन्य अर्थ में जैन दर्शन को विशुद्ध श्वर वादी कहना ज्यादा सुसंगत सिद्ध होता है। अत: जैन दर्शन को नास्तिक कहना भी सुसंगत नहीं है । युक्ति संगत भी नहीं है एवं प्रत्यक्ष विरुद्ध है। चूकि लाखों मंदिर हैं, लाखों प्रतिमाएं हैं। प्रति दिन पूजा-पाठ करने वाले जैन को नास्तिक कहना सूर्य को काला कहने जैसी बात है।
सृष्टि कर्तृत्ववाद की समालोचना
जैसा कि हम ऊपर देख चुके हैं उस ईश्वर को सष्टि कर्ता के रूप में मानना कहां तक न्याय संगत है ? यह समीक्षा भी यहां अवकाश मांगती है। तर्क-युक्ति पर इसका आधार है । ईश्वर में जो बातें नहीं हैं वह यदि हम हमारी तरफ से पारोपित करके ईश्वर का स्वरूप हमारी अपनी दृष्टि के अनुरूप बनाएगे तो निश्चित ही ईश्वर का स्वरूप विकृत हो जाएगा। शायद मानव ने ही अपने स्वार्थवश ईश्वर का स्वरूप विकृत किया है । हमारे पूर्वज न्यायविशारद, तर्कवादी, युक्ति साम्राज्य वाले, कई आचार्य, भगवंतों ने ईश्वरवाद के ऊपर समीक्षा की है । काफी परामर्श इस विषय पर किया है जिनमें सिद्धसेन दिवाकर सूरि, हरिभद्रसूरि, वादिदेव सूरि, हेमचन्द्राचार्य, महोपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराज, विद्यानंदी आदि धुरंधर विद्वानों ने तर्क युक्ति पूर्वक ईश्वरवाद की समालोचना की है। इस विषय के अनेक अकाट्य ग्रंथों की रचना की है। स्याद्वाद रत्नाकर, प्रमाणनय तत्त्वालोक, सर्वज्ञ सिद्धि, सन्मति तर्क प्रकरण, स्याद्वाद मञ्जरी, शास्त्रवार्ता समुच्चय, स्याद्वाद कल्प-लता टीका, न्यायखण्डन खाद्य प्राप्त परीक्षा आदि अद्भुत, अनुपम युक्ति सभर
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कर्म की गति न्यारी