________________
ग्रन्थ अवश्य दर्शनीय हैं । विचारणीय है। यहां प्रस्तुत विषय में हेमचन्द्राचार्य विरचित अन्ययोगव्यवच्छेद द्वात्रिंशिका ग्रन्थ की पू. मल्लिषेण सूरिविरचित टीका स्याद्वादमञ्जरी के एक श्लोक को लेकर थोड़ी उपयोगी विचारणा करें
कर्तास्ति कश्चिज्जगतः स चैक: स सर्वगः स स्ववशः स नित्यः । इमा कुहेवाकविडम्बनाः स्युस्तेषां न येषामनुशासकस्त्वम् ।।
सामान्यार्थ इस प्रकार है-हे नाथ ! जो लोग ऐसा कहते हैं कि जगत् का कोई कर्ता है, वह एक ही है, वही सर्व व्यापी है, स्वतन्त्र है, और नित्य है इत्यादि दुराग्रह से परिपूर्ण सिद्धान्तों को स्वीकार करते हैं उनका तू अनुशास्ता नहीं हो सकता । हे प्रभु ! तू उनका उपास्य नहीं हो सकता।
ईश्वरवादी दर्शन जो ईश्वर को सृष्टि का कर्ता-जगत् कर्ता के रूप से स्वीकारते है उनका कहना है कि यह संसार जो तीन लोक स्वरूप है, विराट ब्रह्माण्डविश्व स्वरूप है वह किसी के द्वारा बनाया हुआ है। पृथ्वी, पर्वत, नदी-नद-समुद्र, वृक्षादि जो जो भी कार्य हैं उसका कारण कोई अवश्य होना चाहिए। चूकि कारण के बिना कार्य नहीं होता। जैसे बिना अग्नि के धूंना नहीं निकालता उसी तरह बिना कारण के कार्य कैसे हो सकता है तथा पृथ्वी, पर्वत, नदी, समुद्र, वृक्षादि ये सब कार्य है यह बात प्रत्यक्ष सिद्ध है तो फिर इनका कोई कर्ता, बनाने वाला कारण रूप होना तो चाहिए। न हो तो यह सृष्टि विश्व तीन लोक, इतनी बडी पृथ्वी, महा समुद्र आदि सब कैसे बने ? यदि कोई बनाने वाला ही न हो तो इनकी सत्ता भी नहीं स्वीकारनी चाहिए। और ये तो सब प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं तो इनका कारण भी स्वीकारना चाहिए । वही अदृष्ट कर्ता ईश्वर ही इन सबका बनाने वाला कारण रूप में है । उसे ही जगत् कर्ता, सृष्टि का रचयिता इत्यादि शब्दों से कहते हैं। जैसे घडा-वस्त्र आदि कार्य हैं तो उनको बनाने वाला कुम्हार, बुनने वाला वणकर प्रादि कर्ता के रूप में हैं। वैसे ही पृथ्वी आदि कार्य को बनाने वाला ईश्वर है । कुम्हार घड़ा बना सकता है परन्तु वह पृथ्वी-पर्वतादि तो नहीं बना सकता। परन्तु ये पृथ्वी-पर्वतादि तो बने प्रत्यक्ष दिखाई दे रहे हैं तो फिर इनका कर्ता कोई अदृश्य होगा, पर होगा सही । वही सर्वशक्तिमान सर्वव्यापी ईश्वर है ।
यह तो ईश्वरवादी का पक्ष हुमा परन्तु यहां प्रश्न यह है कि आप ईश्वर को पृथ्वी आदि का कर्ता मानते हैं ठीक है, परन्तु वह ईश्वर शरीरधारी है कि मुक्तात्ना
कर्म की गति न्यारी