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राग का ही पर्यायवाची स्वभाव है जिसमें इच्छा
है । परन्तु बौद्ध धर्म में तथागत बुद्ध को बोधिज्ञान संपन्न महापुरुष भगवान माना गया है । जैन धर्म में आत्मा ही जो परमात्मा बनती है वही सर्वज्ञ - सर्वदर्शी वीतरागी, अरिहंत, तीर्थंकर, सर्व कर्म रहित, सर्वदोष मुक्त, सर्व विशुद्धावस्था में बिराजमान सिद्ध-बुद्ध-मुक्त को परमेश्वर माना गया है । हां वह वीतराग होने से इच्छा तत्त्व से रहित है । चूंकि इच्छा भी शब्द है । श्रतः राग द्वेष ये कर्म जन्य मानवी अनिच्छा का प्रश्न श्राता है । परन्तु परमेश्वर परमात्मा इस इच्छा तत्त्व से (रागादि भावों से मुक्त है अतः वह जगत को स्वइच्छावश फल देने वाला नही रहता । ईश्वरवादियों ने इच्छा का बल ईश्वर के हाथ में दे दिया है । इसलिए उसे ही जगत के सभी जीवों के कार्य क्रिया का केन्द्र माना गया है । अतः ईश्वर की इच्छा के बिना वृक्ष का पत्ता भी नहीं हिल सकता। जैन धर्म ने निरीश्वरवादी धर्म होते हुए कर्म एवं कर्मफल, सृष्टि-संसार रचना, एवं जंगत व्यवस्था आदि सभी ईश्वरवादी प्रश्नों को सुलझाया है । सभी का उत्तर हैं । सृष्टि आदि का सुव्यवस्थित उत्तर देते हैं । इतना ही नहीं जड कर्मों के हाथ में कर्म फल की सत्ता का कार्य है । अतः ईश्वर का स्वरूप विकृत न करते हुए परम विशुद्ध बताया है । उसकी उपासना सर्व कर्म क्षय हेतु के उद्देश्य से मोक्ष प्राप्ति के फल की प्राप्ति से करने की विशुद्ध साधना पद्धति बनाई है । कर्म फल दाता के रूप में ईश्वर को जीवों के कृत-कर्म के विपाक स्वरूप दुःख सजादि का कारण क्यों मानें ? क्यों ईश्वर को मानवी के सुख-दुख का कारण माने ? कर्म फल के रूप में ईश्वर को बीच में गिरा कर ईश्वर के हाथ गन्दे करना या विशुद्ध ईश्वर के स्वरूप को विकृत करना जैन धर्म ने उचित नहीं समझा । सर्व प्रकार की विकृतियों को दूर हटाकर ईश्वर के स्वरूप को जितना हो सका उतना शुद्ध-विशुद्ध- परमशुद्ध रखा । दोष रहित, कर्म मुक्त, क्लेश कषाय- कल्मष - कर्म रहित माना, राग-द्व ेष रहित वीतराग माना, अज्ञान, अल्पज्ञान रहित सर्वज्ञ सर्वदर्शी माना, विजेता के रूप में जिन जिनेन्द्र, जिनेश्वर माना है । मोक्षमार्ग उपदेशक के रूप में तीर्थंकर अरिहंत माना है । इतना ही नहीं निरीश्वरवादी जैन दर्शन भी ईश्वर शब्द का प्रयोग करते हैं, किसी विशेषण के साथ ईश्वर शब्द का प्रयोग करते हैं- उदाहरणार्थ परम + ईश्वर
अतः ईश्वर को सर्व
परमेश्वरं, जिन + ईश्वर = जिनेश्वर इत्यादि शब्द प्रयोग में प्रतिदिन लाते हैं । परन्तु इसमें सृष्टि कर्ता के अर्थ की ध्वनि नहीं है । परम का अर्थ है जो पामर नहीं है, परम उच्च, परम विशुद्ध पद पर बिराजमान हे परमेश्वर ! जिन राग-द्वेषादि को सर्वथा जीत लेने वाले ईश्वर हे जिनेश्वर ! के नाम से संबोधित करते हैं । न केवल ईश्वर अर्थात् स्वामी या मालिक के अर्थ में नहीं । चूंकि जैन ईश्वर को जगत् का पिता, नियंता, नियामक आदि नहीं मानते है ।
कर्म की गति न्यारी
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