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________________ न्याय-मतानुसार ईश्वर जगत्कर्ता, पालनकर्ता एवं संहारकर्ता के रूप में है। वह जगत् का निमित्त कारण है । वह जीवों के कर्मों का निर्देश करता है। ईश्वर ही जीवों के अदृष्ट (कर्म) के अनुसार उन्हें कर्म करने के लिए प्रेरित करता है और ईश्वर फलदाता के रूप में है । वही फल देता है। ईश्वर विश्वकर्मा है। ईश्वर ही सृष्टि का कर्ता भी है, पालनकर्ता भी है और वही सृष्टि का प्रलय भी करता है । वही सर्व शक्तिमान है, ऐसी मान्यता है । वैशेषिकों ने विशेष भेद यह किया कि परमाणुवाद को सृष्टि सम्बन्धी कारण माना है । लेकिन परमाणुवाद मानकर भी परमाणुओं के संचालक के रूप में ईश्वर को स्वीकारा है। ईश्वर इच्छा ही बलवान है । परमाणुनों के संयोग-वियोग एवं गति आदि में ईश्वरेच्छा ही कारण है। अत: ईश्वर की इच्छा हो तब वह सृष्टि की रचना एवं प्रलय आदि कर सकता है । सांख्य दर्शन में सेश्वर सांख्य और निरीश्वर सांख्य दोनों पक्ष चलते हैं। सांख्य मत सृष्टिकर्ता के पक्ष में नहीं है । प्रकृति-पुरुष आदि २५ तत्वों की व्याख्या सांख्य दर्शन ने बैठाई है । पुरुष शुद्ध चैतन स्वरूप राग-द्वेष से परे है। प्रकृति से भिन्न होकर वह अपना शुद्ध स्वरूप स्थिर रख सकता है। पुरुष ईश्वरं रूप में नहीं है । वह प्रकृति के व्यापारों का द्रष्टा है । वह जन्म-मरण के चक्कर से मुक्त है । ___ईश्वर के अस्तित्व को मानने वाला सेश्वर सांख्य मत ही 'योग-दर्शन' के नाम से प्रसिद्ध है, ऐसी धारणा है । महर्षि पतंजलि इसके मुख्य उद्भावक हैं । इसमें ईश्वर का अधिकतर व्यवहारिक महत्त्व है। योग सूत्र में कहा है कि- "क्लेशकर्म: विपाकाशयरपगमृष्टः पुरुष विशेष ईश्वरः ।" क्लेश-कर्म और उनके फलों से एवं वासनादि से असंस्पृष्ट पुरुष विशेष को ही ईश्वर कहा गया है। परम पुरुष ईश्वर स्वरूप है। वही परमानन्द रूप है। हिन्दू धर्म में, वैदिक परम्परा में ईश्वर को ब्रह्मा-विष्णु और महेश के तीन रूपों में माना गया है। एक सृष्टि की रचना करता है । विष्णु सृष्टि का पालनहार है। महेश को प्रलयकारी संहारकर्ता के रूप में स्वीकारा गया है । ईश्वर के ही हाथ में सभी जीवों के कर्म फल देने की सत्ता है । ईश्वर ही जगत् का नियन्ता है। अतः ईश्वर इच्छा ही बलवान है । ईश्वरेच्छा के बिना वृक्ष का पत्ता भी नहीं हिल सकता। यहां अवतारवाद माना गया है । एक ही ईश्वर पुनः पुनः जन्म लेते हैं । पाते हैं । अतः एकेश्वरवाद की कल्पना है । जीव को ईश्वर का ही अंश माना गया है । यह मान्यता वैदिक परम्परा की है । मीमांसा मत पूर्व मीमांसा और उत्तर मीमांसा-ये ईश्वर को सृष्टिकर्ता के रूप में स्वीकार नहीं करते है । यहां ईश्वर से भी ज्यादा वेद को महत्त्व देते हुए कर्म की गति न्यारी
SR No.002478
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 02 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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