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________________ परन्तु थोड़ा सोचिए। हमारे पूर्वज महापुरुषों ने हमको ऐसी अनुमति क्यों दी होगी। क्या वे नहीं समझते थे कि हम अल्पज्ञ है ? बात सही हैं, परन्तु हम बाजार में सोना खरीदने जाएं और लाख रुपए देकर खरीद भी लें। परन्तु वर्षों बाद यदि वह सोना पीतल है, ऐसा पता चले तब क्या होगा ? तब सिर पर हाथ देकर रोने के दिन आएंगे। हाय मेरे लाख रुपए गए । सोना भी गंवाया और लाख रुपए भी गंवाए। तब कैसी परिस्थिति निर्माण होगी उसके बारे में सोच लेना। उसी तरह ईश्वर की उपासना जीवन भर करने के बाद वह ईश्वर रागीद्वषी है, सर्वज्ञ नहीं है ऐसा पता चला तो फिर क्या होगा ? प्रतः उपासना के पहले ही उपास्य को पहचानना जरूरी है। ईश्वर विषयका भिन्न-भिन्न मान्यताएँ वर्तमान संसार में विद्यमान भिन्न-भिन्न धर्मों में ईश्वर विषयक मान्यता है । ईश्वर ही केन्द्र स्थान में है । चाहे ईश्वरवादी मान्यता वाले हों या निरीश्वरवादी मान्यता वाले धर्म हों, उन्होंने भी शुद्धात्मा, मुक्तात्मा, परमात्मा की बाते की हैं। ईश्वर विषयक मान्यताएं भिन्न-भिन्न प्रकार की हैं। मानने का स्वरूप भिन्न है। वैदिक धर्म में ईश्वर को सृष्टिकर्ता के रूप में माना गया है । बौद्ध धर्म में गौतम बुद्ध जो कि इसके प्राद्य प्रवर्तक थे, उनको बुद्ध पुरुष के रूप में माना गया। परन्तु बौद्ध धर्म ने सृष्टिकर्ता के रूप में ईश्वर को नहीं माना है । जैन दर्शन ने सष्टिकर्ता ईश्वर को ईश्वर नहीं माना है, अतः इसे निरीश्वरवादी कह दिया है। परन्तु परमात्मा अरिहंत को भगवान के स्वरूप में माना गया है। परमात्मा वीतराग स्वरूप है । सर्वज्ञ है । सर्वावरण रहित है । सर्वकर्म दोषमुक्त है । परमपद प्राप्त है। अतः शुद्ध-विशुद्ध प्रात्मा की परमात्मावस्था है। मुक्तात्मा-सिद्धात्मा का स्वरूप सर्वथा कर्ममुक्त है । जन्म-मरण एवं संसारचक्र से मुक्त है। अत: अवतारवाद भी जैन-दर्शन ने नहीं स्वीकारा है। प्रत्येक प्रात्मा आत्मद्रव्य स्वरूप से एक जैसी है। कर्मभेद से भेद है । उदाहरणार्थ प्राभूषण प्राकृति भेद से भिन्न-भिन्न दिखाई देते हुए भी मूलभूत वर्ण द्रव्य की दृष्टि से एक से ही हैं। उसी तरह कर्मोपाधि जन्य देह भेद से भिन्नभन्न होते हुए भी आत्म द्रव्य की दृष्टि से एकरूपता है । साम्यता है। अनन्तात्मा स्वीकारने वाले जैन-दर्शन ने एक ही सर्वोपरि सत्ता को ईश्वर के रूप में स्वीकार नहीं किया है। कोई भी आत्मा स्वकर्मों का क्षय करके उस विशुद्धि की कक्षा तक पहुंचकर परमात्मपद प्राप्त कर सकती है। सर्व कर्म मुक्त मुक्तात्मा पुनः संसार में नहीं लौटती। अत: अवतारवाद की मान्यता जैन-दर्शन को मान्य नहीं है। सर्वोपार्जित कर्मानुसार ही जीव कर्मफल-भोग प्राप्त करता है अतः कर्मफल दाता के रूप में भी ईश्वर को स्वीकारा नहीं गया है । कर्म की गति न्यारी
SR No.002478
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 02 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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