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के लिए कहते थे कि नहीं"नहीं सीने में गांठ हुई है। इस तरह आपने जतन किया है और ५०-६० वर्ष के बाद आज यही नतीजा ! क्या बात है ? वृद्ध बेचारा बरफ की तरह ठंडा हो गया। काटो तो खून भी न निकले । किस पर रोउं ? पारसमणि के नाम पर ? या पत्थर के नाम पर ? या ५०-६० वर्ष संभाल के रखी उस पर ? आखिर किस पर रोना है ? किसी पर नहीं अपनी अज्ञानता पर रोना है । पत्नी ने कहा आपने अपनी बुद्धि से पारसमणि समझकर रख लिया परन्तु वास्तव में पारसमणि थी तो रखने के पहले ही परीक्षा करके देख लेते कि सचमुच. पारसमणि है कि नहीं ? रखने के पहले ही दिन छोटे से लोहे के टुकड़े को सोना बनाकर देख लेते । ५०-६० साल तक फिजुल में संभाल रखी। और आज उसे पत्थर समझ कर फेंकने के दिन आए । अब सिर पर हाथ देकर रोने के सिवाय क्या विकल्प रहा । न फैकने की हिम्मत न रखने की समझ क्या करें ? अफसोस के सिवाय क्या कहें ?
शायद भगवान के विषय में भी कुछ ऐसी ही बात है । हम भी जिन्दगी के ५०-६० साल से ईश्वरोपासना कर रहे हैं। मोक्ष दाता, सर्व गुणसम्पन्न, सर्वज्ञ वीतराग समझकर जिसको भगवान कह रहे हैं, ऐसा न हो कि ५०-६० साल के बाद अन्त में वह रागी-द्वषी देव न निकल जाय । कोई स्वर्गीय देव-देवी ही न हो । जो सर्वज्ञ वीतरागी न हो और हमारे ही जैसा दोषयुक्त, राग-द्वेष वाला रागीद्वेषी न हो । यह यदि वर्षों बाद पता चले तो कैसा होगा ? जैसी उस पारसमणि वाले वद्ध की दशा हुई वैसी ही हमारी दशा होगी। सिर पर हाथ रखकर रोने के दिन आएंगे । अतः अच्छा तो यही होता कि हम उपास्य तत्व की उपासना करने के पहले ही उसका सही स्वरूप समझकर फिर उसकी उपासना करते । इसीलिए ईश्वर परीक्षा करने के लिए महापुरुषों ने अनुमति दी है।
हम ईश्वर की क्या परीक्षा करें ?
सामान्य मानवी यह सोचता है कि हम क्या ईश्वर की परीक्षा करें ? हमारी क्या बद्धि है ? जो हम ईश्वर की परीक्षा कर सकें ? करें तो भी कैसे करें ? इस विषय में हमें अनुचित सा लगता है । अनधिकार चेष्टा लगती है । सर्वज्ञ की परीक्षा हम अल्पज्ञ क्या करें ? आपकी बात भी सही लगती है। समान्य मानवी ईश्वर की परीक्षा करने की हिम्मत भी नहीं करता। यह हमारी शक्ति के बाहर की बात है।
कर्म की गति न्यारी