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गुणोपासना का प्राधार-"ईश्वर"
गुणप्राप्ति निर्गुणी की साधना का साध्य है। अतः सर्वगुण सम्पन्न तत्व ईश्वर परमात्म स्वरूप में, परम शुद्ध स्वरूप में, परमपुरुष-पुरुषोत्तम, सर्वोच्च स्वरूप में हमारा सहायक उच्च आदर्शभूत आलंबन है। आलंबन लिए बिना निःसहाय चल नहीं सकता। बालक को चलाने में हमें अंगुली पकड़ाकर चलाने का साथ देना पड़ता है। अज्ञानी साधक आज बाल्यावस्था में है। बतः बिना आलंबन के हम आगे बढ़ें यह नामुमकिन है । उसी तरह आलंबन यदि ऊचे आदर्श का लिया ही है तो उसे पूरा मान-सम्मान देना यह साधक का कर्तव्य होता है । पूज्य-पूजनीय के प्रति पूजा यह उनकी पूजनीयता का सम्मान है । अपमान पूजा भाव को गिराएगा। विकास पथ की साधना में यह सहायक नहीं बाधक बनेगा। अतः पूजनीय के प्रति पूज्यभाव को व्यक्त करने वाली पूजा पद्धति उपासना का प्रकार है। तरीका है । पूज्य पूजनीय क्यों है ? क्योंकि पूजा करने योग्य उनका ऊंचा स्थान है । गुगों के भण्डार हैं । सर्वदोष रहित है। सर्वगुण सम्पन्न है। साधक निगुर्णी है । दोषग्रस्त है । साध्य जब सर्वगुण सम्पन्न हो और साधक सर्वदोष सम्पन्न हो तो ही पूजा की उपयोगिता सिद्ध होगी। पूज्य की पूजा करना अंतस्थ सद्भाबों को, सन्मान को व्यक्त करने का प्रकार है । सही तरीका है । वही भक्ति है । भक्ति भगवान से जुड़ी हुई है । जिसका कर्ता भक्त स्वयं है । भक्ति में वह शक्ति है जो भगवान की भगवत्ता को खींचकर लाने का चुंबकीय कार्य करती है। अतः भक्ति यह भक्त और भगवान के बीच की कड़ी है । जैसे पति-पत्नि के बीच प्रेम की एक कड़ी है, मां और बेटे के बीच स्नेह-वात्सल्य की जो कड़ी है वही दो के भेद को मिटाकर अभेद की ओर ले जाती है । उसी तरह भक्त और भगवान के बीच के भेद को काटने वाली भक्ति वह कड़ी है, जो भेद को मिटाकर अभेद भाव की कक्षा में ले जाकर एकाकार बना देती है। भक्त भगवान बन जाता है । अतः भक्ति में गुणाकर्षण की चु बकीय शक्ति है।
___ ईश्वर जो आत्म गुणों के सर्व सम्पूर्ण वैभव-ऐश्वर्यों से सम्पन्न है वही हमारी भक्ति का केन्द्र है । भक्ति उसे पाने का सरलतम माध्यम है। जिसमें गुणोत्कर्ष का स्थान है उसके गुणों को गुणाकर्षण करने की चुबकीय शक्ति भक्ति में है । भक्त भगवान से प्रार्थना करता है कि--
गुण अनन्ता सदा तुझ खमाने भर्या । एक गुण देत मुझ शुविमाशो ॥
कर्म की गति न्यारी