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________________ भक्त भक्ति के माध्यम से भगवान और अपने बीच का भेद-अन्तर कम करता हुआ समीप में जाकर गुणयाचना करता हुआ कहता है--हे प्रभु ! आप तो सदा ही अनन्त गुणों से भरे हुए हो, गुणों के भण्डार हो अतः मुझे भी एक गुण दे दीजिए । एक गुण देने में आपके गुण भण्डार में कौनसी कमी आ जाएगी ? परमात्म स्वरूप ईश्वर को गुणश्चर्य सम्पन्न कहा है । अतः ईश्वरोपासना भक्ति के माध्यम से की जाती है। - ईश्वर को पहचानना जरूरी है। . एक पत्नी से उसके पति की पहचान पूछी जाय और पत्नी उत्तर में कहे कि वे कैसे है, वे कौन हैं इत्यादि में नहीं जानती । “पति देवो भव" की भावना से पत्नी पति के प्रति समर्पित है और इस तरह अपना संसार चलाती हुई २५-५० वर्षों का काल बिता चुकी है । ५० वर्ष की लम्बी अवधि तक पति के साथ रहकर, पति की सेवा भक्ति करती हुई पत्नि ऐसा जबाब दे यह संभव नहीं लगता । वह अपने पति को अच्छी तरह जानती है । नख से शिख तक नस-नस पहचानती है। ना कैसे कहे ? ठीक है कि संसार का संबंध है और जिन्दगी भर साथ रहना है इसलिए पत्नि पति को अच्छी तरह पहचानती हो यह संभव है। परन्तु क्या हम यही प्रश्न एक भक्त को पूछे कि भाई ! तुम जिस भगवान की वर्षों से भक्ति करते हो उस भगवान को पहचानते तो हो कि नहीं? भगवान का स्वरूप अच्छी तरह जानते हो कि नहीं ? शायद पत्नि के उत्तर की भक्त इतना सुन्दर दृढ़ विश्वास का उत्तर दे पायगा कि नहीं इसमें हमको शंका है। पत्नि पति को अच्छी तरह जानती है. पहचानती है परन्तु एक भक्त भगवान को अच्छी तरह नहीं पहचानता । जिसका जैसा स्वरूप है उसका वैसा स्वरूप न जानें. न पहचानें तो यह हमारा सम्यग् दर्शन नहीं होगा। या तो भगवान को पहचानते ही नहीं हैं और कई पहचानते भी हैं तो वे भगवान जैसे हैं, वैसे नहीं जानते। जो स्वरूप भगवान का है उस स्वरूप को नहीं जानते । उसमें भी बिकृतियां खड़ी कर देते हैं । विकृत स्वरूप कर्म की गति न्यारी
SR No.002478
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 02 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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