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________________ अतः धर्म करने वाले धर्मी की यह जिम्मेदारी है कि वह धर्म करने के साथ-साथ पाप भी जीवन में से कम करता जाय । पाप कम-करते करते एक दिन ऐसा भी आ जाएगा कि वह पाप सर्वथा छूट जाय । तभी सोने में सुगंध मिलेगी। इसी तरह पाप भीरूता जीवन में बढ़ेगी। पाप भीरूता से भव भीरूता बढ़ेगी। इसी तरह आत्मा कल्याण के पथ पर अग्रसर होगी। धर्म और धर्मी दोनों की कीमत बढ़ेगी। अतः पाप भीरूता और भव भीरूता यही धर्मी के योग्यता-पात्रता का मापदण्ड है। ईश्वरोपासना धर्म धर्माराधना में ईश्वर की उपासना यह केन्द्र में है। उपासना के केन्द्र में ईश्वर जरूर है । हमारी सारी साधना ईश्वर के ईर्दगिर्द है । आत्मा को विकास पथ पर अग्रसर करने के लिए ईश्वर का आलंबन-सहारा लिए बिन आगे बढ़ना असंभव सा है । अतः अध्यात्मवादी आस्तिक ईश्वरोपासना को आलंबन के रूप में अपने केन्द्र में रखेगा। ईश्वर तत्व हमारे लिए एक ऊंचा आदर्श है । सर्वोच्च आदर्श है । चूकि हम अपूर्ण है । ईश्वर पूर्ण तत्व है । अपूर्ण को पूर्ण की उपासना करनी है। हम अल्पज्ञ है ईश्वर सर्वज्ञ है । अल्पज्ञ को सर्वज्ञ की साधना करनी है और अल्पज्ञता हटाकर सर्वज्ञता प्राप्त करनी है। अपूर्णता हटाकर पूर्णता प्राप्त करनी है। इसी तरह ईश्वर में एक नहीं अनेक गुण है । परन्तु हमारे में एक नहीं अनेक दुर्गुण भरे पड़े है। इन दुर्गुणों के कारण हम दुष्ट-दुर्जन कहे जाते हैं, गिने जाते हैं । अतः दोषों को निकालने के लिए निर्दोष का सहारा लेना, दोष रहित ऊंचे आदर्श का आलंबन लेना अनिवार्य है । साध्य है निर्दोषता । परन्तु साधना के केन्द्र में निर्दोष आलंबन किसी का लेना पड़ेगा। वह कौन और कैसा हो सकता है ? क्या हमारे जैसा ही दूसरा कोई भी हमारा आलंबन बन सकता है ? नहीं निर्दोषता के साध्य की साधना में सदोषी को आलंबन बनाने में साधना का परिणाम विपरीत आएगा। रागी को आलंबन बनाकर की जाने वाली साधना हमें वीतरागी नहीं बनाएगी। रागी तो हम है ही अतः वीतरागता प्राप्त करने का साध्य बनाएं । वीतरागता की साधना के लिए वीतराग का ही आदर्श ऊंवा आलंबन समझा जाएगा। अतः जो सर्वज्ञ हों, निर्दोष-दोष रहित हों, पूर्ण तत्व हो, वीतराग हो ऐसे अनेक गुगों से परिपूर्ण-तत्व चाहे ईश्वर नाम बाच्य हो वही हमारी उपासना का केन्द्र हो सकता है । उपासना के तरीके भिन्न हो सकते हैं। परन्तु उपास्य का स्वरूप भिन्न भिन्न स्वरूप का चित्र-विचित्र कर देंगे तो साधना का फल भो चित्र-विचित्र हो जाएगा। साधक साधना के जरिए साध्य को प्राप्त नहीं कर पाएगा तो उसकी साधना व्यर्थ चली जाएगी। कर्म की गति न्यारी
SR No.002478
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 02 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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