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दिन तक चलता रहा लेकिन इसके बाद क्या ? क्या आप डाक्टर को योग्य कहेंगे ?
औषधि जो रोग को बढ़ाये उसे औषधि कैसे कहें ? अतः वह प्रौषधि उस रोग के लिए उचित नहीं हैं। वैसे ही अब में जीवन ऐसा जीउ कि मेरा भावि संसार न बढ़े। मेरी भावि भव परम्परा बढ़ न जाय ऐसा भव भीरू जीव ही धर्म क्षेत्र में योग्यता धारक गिना जायगा ।
भव भीरू बनने के लिए पाप भीरू बनना आवश्यक है। पाप से डरने वाला अर्थात् पाप हो न जाय, किसी क्रिया में पाप कर्म न लग जाय इसका कदम-कदम उपयोग रखने वाला ही पाप भीरू कहलाता है। टायर और कमजोर यदि कहीं होना भी है तो पाप के सामने कमजोर होना भी अच्छा है। आज धर्मी अनेक हैं। धर्म करने वाले अनेक हैं । परन्तु पाप न करने वाले, पाप न करने की प्रतिज्ञा करने वाले बहुत कम है । अतः धर्म करने के लिए भी पाप छोड़ना सीखना अनिवार्य है। किसी विशेष प्रकार का पाप में नहीं करूंगा ऐसी प्रतिज्ञा करना यह बड़ा धर्म है । मैं हिंसा नहीं करूंगा, झूठ नहीं बोलुगा. चोरी नहीं करूंगा, दुराचार, बलात्कार, व्यभिचारादि नहीं करूंगा ऐसी सर्वथा प्रतिज्ञा करना या आंशिक प्रतिज्ञा करना यह बड़ा धर्म है । इसीलिए वीतराग भगवान का धर्म विरति प्रधान है। विराति दो प्रकार की है । (१) देश-विरति । अर्थात् अल्प प्रमाण में पाप न करने के नियम । यह गहस्थी के लिए उपयोगी धर्म है। गृहस्थ जीवन की मर्यादा को ध्यान में रखते हए इस देश विरति धर्म के यम-नियम है। अतः इस देशविरति धर्म का उपासक श्रावक कहलाता है । दूसरा सर्व विरति धर्म है। जिसमें छूट नहीं है । हिंसा-झूठचोरी, मैथुन सेवन एवं परिग्रह आदि के पाप सर्वथा आजीवन न करने की महाभिष्म प्रतिज्ञा ही सर्व विरति धर्म है। यह साधु धर्म है। जो ऐसे महाव्रत धारण करता है वह साधु कहलाता है । अतः वीतराग के धर्म में पाप त्याग को प्राथमिकता दी गई है । पाप त्याग करने वाला ही महान् है । कौन कितने प्रमाण में किन-किन पापों का त्याग करता है वह उतने प्रमाण में धर्मी है। दूसरी तरफ जो पंचाचारादि धर्मोपासना है वह भी धर्म है। एक विधेयात्मक है दूसरा निषेधात्मक है। दोनों का ही यथायोग्य पालन करना चाहिए। आज लोग विधेयात्मक धर्म में दर्शनपूजा-सामायिक-माला जाप आदि कर लेते हैं। करने का नियम भी लेते हैं परन्तु अधर्म-पाप त्याग की प्रतिज्ञा की बात करो तो तैयार नहीं होते हैं। परिणाम यह आता है कि धर्म भी करते हैं और पाप भी करते जाते हैं। इसीलिए धर्म की कीमत भी घटती है। लोग धर्मी की निंदा भी करते हैं। निंदा धर्म की नहीं होती है परन्तु धर्म करते हुए पाप प्रवृत्ति कम नहि होती है उसकी है।
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कर्म की गति न्यारी