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कंठ से सभी को प्रिय है। जबकि कौआ किसी भी रूप में किसी को प्रिय नहीं है । सभी को अप्रिय है । संसार में प्रियाप्रिय की विचित्रता बड़ी लम्बी चौडी है ।
इस प्रकार का संसार देखने से सेंकड़ों प्रकार की विचित्रता, विविधता और विषमता दिखाई देती है । इसका कारण क्या हो सकता है ।
दो भाई के बीच वैषम्य
एक मां के दो पुत्र या चार पुत्र भी परस्पर समान स्वभाव वाले नहीं होते हैं । समान प्रेम भी नहीं होता । भाई-भाई भी दुश्मन बन जाते हैं । एक दिन एक थाली में इकट्ठे भोजन करने वाले दो भाई एक दिन एक दूसरे के दुश्मन बन जाते हैं। एक दूसरे को आंखों के सामने देखने के लिए भी तैयार नहीं है । ऐसे दृष्टांत को देखने जाएं तो संसार में लाखों दृष्टांत है । औरो की तो बात ठीक परन्तु हमारे परम उपकारी भगवान पार्श्वनाथ का ही दस भवों का संसार देखें तो बड़ी भयंकर विचित्रता सामने आएगी । पहले जन्म में दोनों एक माता-पिता के दो पुत्र सगे भाई थे । बड़ा भाई कमठ और छोटा भाई मरूभूति । माता-पिता ने दोनों की शादी करा दी । कालावधि समाप्त होने पर दोनों स्वर्ग में चले गए। कालक्रम से दोनों भाई बड़े हुए । सामान्य निमित्तों के कारण बड़े भाई कमठ को छोटे भाई मरूभूति पर निष्कारण वैमनस्य रहने लगा । वह घर छोड़ कर जगल में भग गया । तापस के आश्रम में जाकर सन्यासी बना परन्तु मन में भाई का वैर लेने की वृत्ति शांत नहीं हो रही थी । वह सन्यासी बनकर आया और गांव के बाहर धूणी लगाकर तपश्चर्या करके बैठा | मुसाफिर के साथ मरूभूति को बुलाने का संदेश भेजा । भद्रिक परिणामी मरूभूति मिलने गया । ऐसा मौका देखकर बड़े भाई कमठ ने बड़े पत्थर की शिला उठाकर पैरों में झुके भाई के सिर पर जोर से पटककर सिर फोड कर मार डाला । इनने से भी संतोष नहीं हुआ.. ......तब अपनी समस्त तपश्चर्या को होड में लगाकर नियाणा किया कि भावि में जनम-जनम तक इसको मारने वाला तो मैं ta | ही हुआ आगे । १० जन्म तक दोनों भाईयों का भव संसार वैर-वैमनस्य का चला। छोटा भाई मरूभूति जो स्वभाव से शांत प्रकृति का था । समता का साधक था । आत्म कल्याण की साधना में लगा हुआ था। ठीक इससे विपरीत प्रकृति वाला बड़ा भाई कमठ था । वह सभी जन्मों में मारनेवाला ही बना । मारता ही गया । परन्तु याद रखिए मारने वाले का ही बिगडता है । समता से मरनेवाले का कुछ भी नहीं बिगड़ता । दुर्गति मारने वाले की होती है । समता से समाधि में मरने वाले की सद्गति होती है। संसार में मारने की वृत्ति वाले तो लाखों है जबकि
कर्म की गति न्यारी
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