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________________ जीव का पुनः निगोद में जाना उत्थान और पतन तो संसार परिभ्रमण का स्वरूप है। बिना इनके संसार में भटकना नहीं होता। संसार चक्र में परिभ्रमण का जो यह चित्र बताया गया है इसमें जिस तरह एक के बाद दूसरे जन्म बताए गए है यह ध्यान से देखिए। जीव क्रमशः ऊपर चढ़ता-चढ़ता पंयेन्द्रिय पर्याय में भी मनुष्य गति में आया। मनुष्य जन्म में खाने-पीने के निमित्त भी महा भयंकर पाप करता है। मांसाहार-अण्डे आदि का सेवन करता है । उसी तरह इस पापी पेट को भरने के लिए अनन्त काय का सेवन करता है। जानता है कि ये अनन्तकाय पदार्थ है। आलु, प्याज, लसुन, अदरक, गाजर-मूली आदि अनन्तकाय अर्थात् साधाराण वनस्पतिकाय के स्थूल जीव हैं। एक बार के खाने से अन त जीवों की हिंसा होगी । अतः मैं इससे तो बचु यह भी दया नहीं है । वह क्या दया पालेगा ? कई भयंकर पापों के परिणाम स्वरूप तीव्र-मोह एवं भयंकर अज्ञान के कारण किए हुए पापों का परिणाम यह आता है कि जीव गिरकर पुनः निगोद के गोले में चला जाता है । जिस निगोद के गोले से बाहर निकलने में अनन्त काल बीत चुका था, जहां से अपनी ससार यात्रा प्रारभ की थी आज वापिस वहीं जाकर गिरा। सोचिए अधःपतन की यह अन्तिम चरम कक्षा है। शास्त्रकार महर्षि तो यहां तक कहते हैं कि-मनुष्य गत में कोई दीक्षा लेकर साधु भी बन जाय और आगे बढ़कर चौदहपूर्वी - १४ पूर्वधारी ज्ञानी-परम गीतार्थ भी बन जाय वे भी पुन: निगोद में जा सकते हैं। कितने ऊपर से कितनी नीची कक्षा में पतन ? सोचिए अब क्या हालत होगी ? फिर उस निगोद के गोले में जाकर उत्पन्न हआ । दुःख क्या फिर वही चक्र ! फिर पलक भर में जन्म-मरण धारण करते ही जाओं अन्नतगुनी वेदना सहन करते ही जाओ। दूसरी बात यह है । अब निगोद के गोले से वापिस बाहर निकलने के लिए किसी के मोक्ष में जाने से निकलने का चान्स अब पुनः आए इस जीव को नहीं मिलेगा। निगोद के गोले में दो प्रकार के जीव हए । एक तो वह जो पहले से निगोद के गोले में अनादि-अनन्तकाल से पड़ा ही था, जो बाहर निकला ही नहीं था उसे अव्यवहार राशि निगोद का जीव कहते हैं। तथा दूसरा वह जो निगोद के शोले से बाहर निकला था । संसार यात्रा में प्रगणित जन्ममरण धारण करके वापिस निगोद में आया है, संसार परिभ्रमण का व्यवहार जो करके आया है उसे व्यवहार राशी निगोद जीव कहते हैं। निगोद के गोले में अन्य सब कुछ दोनों का समान हैं । परन्तु सबसे बड़ा अन्तर तो यह है कि--अव्यवहार राशी वाला निगोद जीव ही किसी के मोक्षगमन से बाहर निकल पाएगा। यह चान्स ३४ कर्म की गति न्यारी
SR No.002478
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 02 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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