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________________ बनाना, आहार, श्वोसाच्छवास, इन्द्रियां, सुख-दुःखादि के अनुभव की बात आई तो यह सब कर्म के आधीन है । अतः निगोद की मूलभूत अवस्था में भी जीव कर्म सयुक्त ही पड़ा है । अनन्तकाल से जीव निगोद में कर्मयुक्त ही है । सर्वथा जीव पहले कर्म रहित था और फिर कर्म लगे ऐसा मानने पर तो आपत्ति यह आएगी कि जीव निगोद में कर्मरहित था तो वहां मुक्त (कर्म मुक्त ) था । सिद्ध था और फिर कर्म लगे, तो हमें निगोद में मोक्ष मानना पड़ेगा । जैसे सोना खान में पहले से था तभी से मिट्टी से मिश्रित था । कभी भी खान में मिट्टी से रहित नहीं था । अत: पहले सोना शुद्ध. मिट्टी से रहित था और बाद में सोना अशुद्ध हुआ ऐसा भी नहीं कह सकते । चू ंकि सोना कण-कण स्वरूप में मिट्टी के साथ मिश्रित ही था । ठीक उसी तरह आत्मा निगोदावस्था में पहले से ही कर्म परमाणुओं से लिपटा हुआ ही था कभी भी प्राथमिक अवस्था में भी जीव कर्म रहित शुद्ध था ही नहीं । ऐसा न मानने से जीव को वहीं निगोद में ही मुक्त सिद्ध मानने की आपत्ति आएगी । अतः निगोदावस्था भी संसारी सूक्ष्म स्थावर वनस्पतिकायावस्था ही है । सूक्ष्मपना, स्थावरपना ये स्थावर दशक की नाम कर्म की प्रकृतियां हैं । अतः संसारी जीव मात्र कर्मयुक्त ही है । तथा निमोद के गोले में पड़ा हुआ जीव भी कर्म बांधता है । यह निरीक्षण सर्वज्ञ केवलज्ञानी भगवन्तों का है । ऐसी सूक्ष्मतम अदृश्य निगोदावस्था में जीव ने अनन्त काल बिताया । अनन्त जन्म-मरण धारण किये । अनन्तानंत भव उसी अवस्था में उसी गोले में बिताए । बही अवस्था सभी अनन्त निगोद जीवों की समान है । 1 निगोद से बाहर निकलना निगोदस्थ जीव का जो शास्त्रीय वर्णन किया गया है यह देखते हुए हम यदि विचार करें कि तिगोद में से बाहर निकलने के लिए जीव क्या प्रयत्न करता होगा ? जीव का अपना कोई प्रयत्न विशेष रहता होगा कि जो जीव को उस निगोद के गोले से बाहर निकाल सके ? अच्छा यदि प्रयत्न- पुरुषार्थ करे तो भी क्या करे ? कैसा प्रयत्न करे ? जबकि निगोद का एकमात्र स्पर्शानुभव करने वाला एकेन्द्रिय कक्षा का सूक्ष्म साधारण वनस्पतिकाय का स्थावर निकाय की भेद का जीव जो अभ्यक्त अवस्था में पड़ा है, सिवाय जन्म-मरण करने के उसके सामने और है भी क्या ? अतः वह स्वयं कोई ऐसा प्रयत्न नहीं कर सकता। हां आ पड़े दुःख को सहन करते हुए अकामनिर्जरा के बल पर कुछ अपनी भवितव्यता निर्माण कर सकता है। अतः शास्त्रों में बताई हुई सिद्धांत की व्यवस्था इस प्रकार की है कि चौदह कर्म की गति न्यारी २७
SR No.002478
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 02 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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