________________
को ही निगोद के दूसरे नाम से कहा है संज्ञा दी है । अत्यन्त सूक्ष्म रूप में अदृश्य गोले के रूप में इनका अस्तित्व चौदह राजलोक के समस्त ब्रह्मांड के कोने कोने में स्वीकारा गया है । ये निगोद के गोले ही अनन्त जीवों की खान है ।
निगोद के गोले का जीवन स्वरूप
इस निगोद की संज्ञा में असंख्य गोले हैं। जबकि एक गोले में जीवों की संख्या अनन्त है । इनका जीवन इसी गोले में ही रहता है। जन्म-मरण सतत एवं अविरत इसी गोले में होता है । निगोद में प्रतिक्षण जन्म लेना और प्रतिक्षण मरना यही सतत चलता रहता है । अनन्तज्ञानी सर्वज्ञ भगवंतों ने बताया कि १ श्वास परिमित काल-अर्थात् हम सामान्य तौर पर १ बार श्वास लेते है-उसमें जितना समय लगता है उतने में गोले में रहे हुए ये निगोद के जीव १७] भव करते हैं । अर्थात् १७ बार जन्म लेना और मरना तथा १८ वीं बार जन्म लेना पर मृत्यु होने से पहले श्वास का काल पूरा हो जाता है । इसलिए १७ भव कहे जाते है । इनका न्यूनतम आयुष्य काल २५६ आवलिका का होता है । असंख्य सयमों की एक प्रावलिका होती है । ऐसी २५६ आवलिका का एक लघुतम क्षुल्लक भब होता है । ऐसे १७] भव हमारे १ श्वास लेने के काल में पूरे होते हैं । २ घड़ी अर्थात् ४८ मिनिट का जो अतर्मुहूर्त का काल होता है उसमें ६५५३६ भव होते हैं। २५६ आवलिका का १ जन्म । और १ अन्तर्मुहूर्त अर्थात् ४८ मिनिट (२ घडी) में १६७७७२१६ (१ करोड़, ६७ लाख, ७७ हजार, २१६) आवलिकाए होती है। इतनी आवलिकाओं में निगोदीया जीव के ६५५३६ भव (जन्म-मरण) होते हैं । अर्थात् अब विचार कीजिए-सतत-अविरत जन्म-मरण के सिवाय वहां क्या रहा ? जन्म लेना और मरना । जन्म लेना अर्थात् शरीर रचना करना-देह संयोग-फिर जीवन जीना और फिर मरना अर्थात् देह छोड़ना-देह वियोग । फिर वापिस उसी काय में जन्म लेना फिर मरना...फिर जन्म लेना-फिर मरना । इस तरह अनन्त काल बीत गया । अनन्तकाल से जीव उस निगोद की अवस्था में गोते में पड़ा है। जन्मता है मरता है । सोचिए अनन्त काल में उस गोले में निगोदिया जीव के कितने जन्म हुए कितने मरण हुए । जबकि काल ही अनन्त वर्षों का बीता है तो जन्ममरण तो अन त x अनन्त हुए हैं । न तो काल का अन्त और न ही भव संख्या का अन्त ।
निगोद में भी जीव कर्म युक्त है अब जब जन्म-मरण की बात आई तो यह कर्माधीन है । देह रचना की शरीर
कर्म की गति न्यारी