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________________ जीवों की खान-निगोद जन्म-मरण का मुख्य केन्द्र आत्मा है । आत्मा के बिना जन्म-मरण का अस्तित्व भी नहीं रहता । जबकि जन्म-मरण अनादि-अनन्त काल से चल रहे हैं तो आत्मा का अस्तित्व भी अनादि-अनन्तकाल से हैं यह सिद्ध हो गया। जन्म-मरण का तो भूतकाल की अपेक्षा अनादित्व सिद्ध हुआ है और भूतकाल में भी भव संख्या अनन्त हुई है । लेकिन भविष्यकाल की अपेक्षा से विचारें तब मोक्ष में जाने के बाद जन्म-मरण की अनादि परम्परा का अन्त भी आ जाएगा । परन्तु आत्मस्वरूप के अस्तित्व में कोई न्यूनता नहीं आएगी। चाहे आत्मा संसार में रहे या मोक्ष में जाय । आत्मा स्वस्वरूप से स्वद्रव्य से नित्य शाश्वत-अजर-अमर, अनादि-अनित्य स्वरूप में ही रहेगी । आत्मा की उत्पत्ति नहीं है अतः अनादित्व है और अन्त (नाश) नहीं है अतः अनन्तत्व सिद्ध होता है। जैसे सोना-चांदी-हीरा आदि कहां से आए ? कहां थे ? कैसे थे ? इत्यादि सोचते समय सोना खान से निकला, चांदी, हीरा आदि भी खान से निकले हैं। खान हीरे का मूल उद्गम स्थान है । वैसे ही सोना चांदी भी खान से निकले हैं। उसी तरह जीव कहां से आया ? कहां से निकला ? ये प्रश्न खड़े होते हैं । इसका उत्तर देते हुए-“जीव निगोद के गोले में से निकला" है ऐसा सर्वज्ञ प्रभु ने कहा है । अतः निगोद जीवों की खान हुई। सभी जीव निगोद के गोले में से निकले हैं। आए हैं यह शब्द रचना है । ऐसी वाक्य रचना का ही प्रयोग किया जा सकता है। उत्पन्न हुए हैं ऐसी शब्द रचना नहीं। चूकि नित्य अनादि-अनन्त शाश्वत द्रव्य उत्पन्न नहीं होता। जो उत्पन्न होता है वह नष्ट होता है । और जो नष्ट होता है वह उत्पन्न द्रव्य है जबकि आत्मा द्रव्य नष्ट नहीं होता है अतः अनुत्पन्न द्रव्य है । उत्पत्ति नहीं है। अतः अनादित्व सिद्ध होता है । और अन्त नहीं है अतः अनन्तत्व सिद्ध है। निगोद स्वरूप ऐसे अनुत्पन्न शाश्वत द्रव्य आत्म स्वरूप का निगोद के गोले में मूलभूत अस्तित्व स्वीकारा भया है उत्पत्ति नहीं। इसलिए निगोद को जीवों की खान कह सकते हैं । समस्त चौदह राज लोक स्वरूप ब्रह्मांड में असंख्य गोले भरे पड़े हैं। जिस तरह बच्चे साबुन के पानी को कागज के गोलरवैये में मुंह से खींचकर फूक मारकर हवा में उड़ाते है । उस समय गोल-गोल बुलबुले हवा में उड़ते हैं, तैरते हैं । कई लड़के मिलकर चारों तरफ से सैकड़ों बुलबुले उडाने लगे तो वायु मण्डल-आकाश कर्म की गति न्यारी
SR No.002478
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 02 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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