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हमारे पास कोई एक शब्द नहीं है और न ही 'मापक-यन्त्र" । अतः सैकंड का हजारवां भाग उत्तर देना पड़ा । और मानों कि हजार की जगह पर एक लाख की पेज संख्या होती तो क्या उत्तर देते ? सेकण्ड का लाखवां भाग कहते । इस तरह कहां तक आगे बढ़ते ? अन्त में काल की कोई निश्चित इकाई निकालनी पड़ेगी। वह सर्वज्ञ भगवन्तो ने बताई है। 'समय' को काल की अंतिम इकाई की संज्ञा दी है । जो एक बार आंख टिमटिमाने में असंख्य समय बीत जाते हैं उन असंख्य समयों में से सिर्फ २-३-४ समय जीव को अपने उपार्जित कर्मानुसार स्थान तक पहुँचने में लगते हैं । अतः कितना सूक्ष्मतम गणित है सर्वज्ञ महापुरुषों का ? जहां हमारी बुद्धि के परे की बात है । वहाँ अनन्त ज्ञानी का ही प्रमाण असंदिग्ध रहता है। इतना अल्पकाल जीव को जाने में लगता है । इस तरह विचार करने पर यह प्रतीत होगा कि कितने जन्म-मरण जीव ने धारण कर लिए होंगे ?
जन्म-मरण क्या है ? जन्म-मरण क्या है ? यह पूछने का प्रश्न नहीं हैं। सभी अच्छी तरह स्पष्ट जानते हैं । परन्तु शास्त्रीय भाषा में इसका उत्तर इस तरह दिया जाता है किजीव जिस गति में स्वोत्पत्ति स्थान में गया, वहां उत्पन्न हुआ। माता-पिता के रज-वीर्य का मिश्रित पिण्ड उस जीव को मिला वह लेकर वहां उत्पन्न हुआ। आहारादि ग्रहण करके देह निर्माण का कार्य प्रारम्भ किया । शरीर एवं इन्द्रियां बनाई। श्वासोच्छवास का कार्य प्रारम्भ किया। भाषा-मनादि की छ पर्याप्तियां पूर्ण की । इस तरह छ पर्याप्तियां पूर्ण कर निश्चित काल अवधि तक वहां विकास पूर्ण कर योग्य समय में जन्म लिया । आत्मा का देह के साथ संयोग होना, या देह धारण करना ही जन्म है। तथा उसी आत्मा का उस देह में रहने का काल पूरा होने के बाद देह को छोड़कर चले जाना मृत्यु है । अतः आत्मा का देह संयोग-जन्म और देह वियोग मृत्यु है। जन्म से लेकर मृत्यु तक लम्बी एक रम्सी रखें तो उस रस्सी का पहला किनारा जन्म का है और अंतिम किनारा मृत्यु का है । अतः संसार चक्र में एक दिन जन्म का और एक दिन मृत्यु का है। जन्म से मृत्यु के बीच के काल को जीवन कहते हैं। किस जीव की काल अवधि कितनी है ? यह उसके बांधे हुए आयुष्य कर्म पर आधारित है। यह जीवनडोरी है । अत्यन्त अल्प आयुष्य (जीवन काल) है । मृत्यु का कोई भरोसा नहीं है । मृत्यु कब आएगी यह निश्चित नहीं है । “नित्यं सन्निहितो मृत्यु कर्तव्यो धर्म संचयः” । मौत सिर पर मंडरा रही है, मृत्यु सदा ही पास खड़ी है यह समझकर धर्म कार्य, आत्म कल्याण की साधना जो करनी है वह कर लेनी चाहिए ऐसा महापुरुषों का कथन है ।
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कर्म की गति न्यारी