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जिसके शरीर में रहने पर सुख-दुःख-हलन-चलन-बोलना-खाना-पीना आदि सारी क्रियाएं चल रही थी वह सब बन्द हो गई । अब मुरदा रहा है । अब सुख-दुःख कुछ भी नहीं सहन कर सकता । इसीलिए जला दिया जाता है।
अतः जीव जो गया है वही जन्म धारण करता है । “जीव गया" में गयागम धातु का प्रयोग है। 'गया' शब्द आते ही कहाँ गया यह प्रश्न खड़ा होता है । किसी स्थान-क्षेत्र विशेष का उत्तर सामने आता है। किसी स्थान में गया होगा । किसी देश-नगर में गया होगा किसी अन्य गति में गया होगा। बस तो यही बात सत्य है । जीव स्वकर्मानुसार चार गतियों में से किसी भी गति में गया है । और वहां जन्म स्थान में जन्म लेता है । अतः पुनर्जन्म कहा जाता है । जीव ने फिर से किसी गति में जन्म लिया ।
जीव को जाने में कितना समय लगता है ? पुनर्जन्म-फिर से जन्म जीव का होता है। जीवात्मा अनादि अनन्त काल तक स्वस्वरूप में नित्य रहनेवाला द्रव्य है। अविनाशी शाश्वत पदार्थ है। विनाशी और अनित्य रहता तो कब का नष्ट हो चुका होता । लेकिन अनादि-अनन्तकाल के बाद भी जीव अपने स्वरूप में, अपने अस्तित्व में जैसा का तैसा रहा है । सुवर्णएक धातु है। उसके आभूषण बनते हैं । सभी आभूषणों में सोना मूलभूत धातु(द्रव्य) है । चाहे आपने चेन बनाई-नहीं पसन्द आई गलाकर अंगूठी बनवाई फिर गलाकर मुकुट बनवाया फिर गलाकर कंगन बनवाया। इस तरह आप बार-बार आभूषण की पर्याय बदलते ही गए। लेकिन सोना नष्ट हुआ ? सोना बदला ? सोना मूलभूत धातु-द्रव्य है । वह नष्ट नहीं हुआ । ज्यों का त्यों ही रहा। पर्यायआकृति बदलती गई। उसी तरह आत्मा मूलभूत द्रव्य है। शाश्वत-अविनाशी द्रव्य है । वही बारबार जन्म लेती है । एक बार घोड़ा बनी, मृत्यु के बाद हाथी बनी, वही पुनः देवगति में जाकर देव बनी, वही पुनः मनुष्य गति में जन्म लेकर मनुष्य बनी, वही आत्मा नरक गति में जाकर नारकी बनी। इस तरह चारों गति में ८४ लक्ष योनियों में जाती है। जन्म लेती है। इस तरह बार-बार-पुनः जन्म आत्मा लेती है। शरीर नहीं। शरीर तो आत्मा के लिए रहने का घर मात्र है । आधार स्थान है। शरीर एक आकृति-पर्याय है । जो आभूषण की तरह है। बदलती रहती है।
अब जब निश्चित है कि आत्मा ही जन्म लेती है । एक गति से दूसरी गति में, एक जाति से दूसरी जाति में, एक जन्म से दूसरे जन्म में, एक भव से दूसरे
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कर्म की गति न्यारी