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________________ धर्म है । इन्हीं पंचाचार के धर्मों का प्रमुख रूप से आचरण करने से उन उन-ज्ञानदर्शनादि गुणों पर ढके हुए ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीय आदि कर्मों का क्षय होगा। इसलिए धर्म आत्म गुण प्रादुर्भावक एवं कर्म क्षय कारक उभय रूप होना चाहिए । जिससे दोनों कार्य होंगे । एक तरफ कर्म क्षय होगा तो दूसरी तरफ जैसे जैसे कर्मावरण हटते जाएंगे वैसे वैसे आत्म गुण प्रकट होते जाएगे। यही धर्म का सही कार्य है । फल है । अतः तदनुरूप धर्म होना चाहिए। इस तरह कर्म सिद्धि के आधार पर धर्म की व्याख्या बनती है । - कर्म योग-संयोग कर्म संसक्त संसारी आत्मा देहधारी है । आखिर जब आत्मा को संसार मेंसंसारी अवस्था में रहना है तो निश्चित ही उसे किसी न किसी देह में ही रहना पड़ेगा। यह देह भी कर्म निमित्त है। तथा प्रकार के कर्मानुसार आत्मा ने रहने के लिए देह का निर्माण किया है । एक गृहस्थी के लिये जिस तरह घर-मकान की आव. श्यकता अनिवार्य है । अथवा किसी द्रव्य पदार्थ को रखने के लिए किसी अाधार पात्र की पूरी आवश्यकता रहती है ठीक उसी तरह आत्मा एक द्रव्य है। इसको संसार में रहने के लिए तथा प्रकार के देह की पूरी आवश्यकता है। बिना आधार पात्र के जैसे पानी आदि द्रव पदार्थ आकाश में लटकते हुए नहीं रह सकते ठीक उसी तरह बिना किसी शरीर के जीवात्मा संसार में नहीं रह सकती । क्योंकि आत्मा निरंजननिराकार अरूपी-अनामी है । यह शुद्ध स्वरूप संसार रहित मुक्तावस्था में सदा काल रहता है । परन्तु संसारी अवस्था में देह की आवश्यकता अनिवार्य है । संसार में बिना देह के आत्मा नहीं रह सकती । देह निर्माण के लिए कर्म कारण रूप है । देह आया कि देह के साथ इन्द्रियां आई । इन्द्रियों में जीभ आई कि भाषा का व्यवहार करने के लिए वचन योग आया । और आगे चलकर इन्द्रियों के पीछे अतीन्द्रिय मन आया। इस तरह आत्मा देह-इन्द्रियां-वचन एवं मन के घेरे में घिर गई । परिधि के मध्य में जैसे केन्द्र है वैसे ही देहादि की परिधि के मध्य में आत्मा है । पिंजरे में बंदिस्त पोपट की तरह आत्मा इस देह पिंजर में बंदिस्त है। अतः कर्माधीन जीव न केवल कर्म के ही आधीन हुआ अपितु कर्म से जन्य शरीर-इन्द्रियां, वचन एवं मन के भी आंधीन हो गया है । इसीलिए आज हम शरीर के गुलाम, परवश, इन्द्रियों के गुलाम तथा मन के गुलाम बने हुए हैं । सभी जीवों को सभी इन्द्रियां नहीं मिलतीकम-ज्यादा मिलती है। उसी तरह सभी जीवों को मन नहीं मिलता है। सिर्फ सज्ञि पंचेन्द्रिय जीवों को ही मन मिलता हैं। जहां तक इन्द्रियां ही पूरी न मिली हो वहां तक मन भी नहीं मिलता। इन्द्रियां पांचों मिल गई हो उसके बाद ही मन कर्म की गति न्यारी १५१
SR No.002478
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 02 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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