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________________ परन्तु गोत्र कर्म किसी जीव को उच्च कुल में और किसी को नीच कुल में ले जाता है । किसी को राजकुल में जन्म मिलता है तो किसी को हरिजन-भंगी-चमार मेतर कुल में जन्म मिलता है। एक उच्च गोत्र पूजनीय गिना जाता है तो दूसरा नीच गोत्र निंदनीय गिना जाता है । यह सारा कार्य गोत्र'कर्म का है। (८) भंडारी के जैसा-अंतराय कर्म-राज दरबार के भंडार को संभालने वाला जो भंडारी होता है उसके पास राजाज्ञा प्राप्त पुरुष कोई एक हजार रुपए लेने आया है । ऐसे समय भंडारी राजा की आज्ञा होते हुए भी मनाई करता है। नहीं मिलेंगे। पहले का हिसाब लाओ । क्या किया ? कहां गए ? अब नहीं मिलेंगे। भले ही राजा की आज्ञा हो । ठीक इसी तरह अन्तराय कर्म है। यह विघ्नकर्ता है । दान-लाभ आदि प्राप्त होते हो उसमें विघ्न करने का काम अन्तराय कर्म भंडारी की तरह करता है । इस अन्त राय कर्म के कारण आत्मा अपने अनन्त दानादि, अनन्त આ અંતરાણકને शक्ति आदि गुणों को प्राप्त नहीं कर सकती है । होने पर भी बीच में विघ्न करता है वह अन्तराय कर्म है । इसे भंडारी की-खजानची की उपमा दी गई है । इस तरह इन आठ कर्मों को अच्छी तरह से समझ सकें इसके लिए शास्त्रकार महर्षियों ने पाठ प्रकार के लौकिक दृष्टान्तों को लेकर उपमा देते हुए समझाया है । जो स्वभाव इन आठ कर्मों का है। अनन्त शक्तिमान आत्मा अपने अन्दर ज्ञानदर्शनादि सब कुछ मूलभूत गुण एवं शक्तियां अनन्त के प्रमाण में पड़ी हुई होते हुए भी इन आठ कर्मों से दबकर आत्मा कुछ भी नहीं कर सकती है। यह कितने बड़े आश्चर्य की बात है ? इसीलिए कर्माधीन जीव आज कर्म के भार से दबा हुआ होने के कारण आत्मा धारणानुसार आत्म गुणों का पूर्ण आविर्भाव नहीं पाकर रही है । यह तो तभी संभव है जब आत्मा सर्व कर्म मुक्त सिद्ध-बुद्ध-मुक्त बन जाय तब सभी गुण अपने पूर्ण स्वरूप में प्रगट हो जाएंगे। तब कोई कर्म नहीं रहेंगे । अतः धर्म की व्याख्या यही समझा रही है कि-जो आत्मा पर लगे हुए आवरक-गुण आच्छादक कर्म है उनको हटाने का पुरुषार्थ आत्मा को करना चाहिए। अनन्त ज्ञान-दर्शनादि जो आम गुण है उन्हीं गुणों का जीव आचरण करें। आचार धर्म हो जाएगा। ऐसे ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप एवं वीर्य के नाम के पांच आचार है। उन्हें पंचाचार कहते है। इन पांचों आचार धर्मों का पालन करना अर्थात् स्वगुणोपासना करना यह मुख्य १५० कर्म की गति न्यारी
SR No.002478
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 02 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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