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का नम्बर पाता है। इसलिए मन वाले जीव पंचेन्द्रिय ही होते हैं। पांच से कर इन्द्रिय वाले जीव मन वाले नहीं बनते ।
मन ., आत्मा
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__ काया वचन इस तरह जीव मन-वचन और काया के इन तीन के घेरे में घिर गया है। अब आत्मा को सारी प्रवृत्ति इन्हीं के माध्यम से करनी है। इन्द्रियां शरीर का ही भाग है । अंग विशेष है अतः इन्द्रियों को अलग से स्वतंत्र न गिनते हुए उन्हें शरीर के अन्तर्गत ही गिनकर चलते हैं । अतः मुख्य रूप से शरीर-वचन एवं मनोयोग वाले जीव हुए। ये तीनों कारण रूप है। क्रिया में सहायक-सहयोगी है। आत्मा इनके माध्यम से क्रिया करती है। संसारी अवस्था में सारी क्रियाएं इनकी सहायता से चलती हैं। कर्माधीन जीव इन्द्रियों की सहायता से देखता-सुनता-सुघता है । देखनेसुनने की क्रिया तो जीव ही करता है । परन्तु देखने में आंख सहायक बनती है । इन्द्रियों के जरिये देखा-सूधा जाता है। आत्मा शरीर में न हो और इन्द्रियां सभी पूरी हो तो वे इन्द्रियां देखने-सुनने आदि की क्रिया नहीं कर सकती । अतः मुख्य कर्ता चेतन जीव है।
शुभ-अशुभ क्रिया से कर्म क्रिया का कर्ता चेतन जीव है। क्रिया में साधन रूप शरीरादि है । इन सबके माध्यम से तथा प्रकार की भिन्न भिन्न क्रियाएं होती है। शरीर के द्वारा हलन-चलन, गमन-प्रागमन, निद्रा-जागृति, आहार-निहारादि की सभी क्रियाएं शरीर के माध्यम से होती है। शरीरधारी जीवों की ये प्रमुख क्रियाएं है । इन्द्रियों के माध्यम से जीव देखने-सुनने-सूघने-चखने-स्पर्श करने की क्रिया करता है । ये पांचों इन्द्रिया २३ प्रकार के वर्ण-गंध रस-स्पर्श-ध्वनि आदि क्रिया में कारक है। पांच इन्द्रियों के मुख्य २३ विषय है । वर्ण-५, + गंध-२, + रस-५, + स्पर्श८, + ध्वनि-३= २३ । इन २३ विषयों की क्रिया पांच इन्द्रियों के माध्यम से होती है। ये पांचों इन्द्रियां २३ विषयों का ज्ञान कराती है, तथा प्रकार के वर्णादि के ज्ञान में सहायक है अतः ज्ञानेन्द्रियां कहलाती है। वचनयोग-भाषा बोलने की क्रिया में कारण रूप है । वचन योग के माध्यम से व्यक्त-अव्यक्त प्रकार की भाषा जीव बोलता है । भाषा व्यवहार भी संसार में बहुत ही आवश्यक क्रिया है। तीसरा है-मनोयोग । मन से सोचने-विचारने की क्रिया होती है। किसी भी वस्तु या व्यक्ति के बारे में सोचना-विचारना पड़ता है। यह काम जीव मन के माध्यम से करता है।
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कर्म की गति न्यारी