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क्रिया आत्म गुणों के अनुरूप न होकर कर्मानुस र होगी। चेतन जीव द्रव्य कर्ता है। सक्रिय द्रव्य है । अतः इसे ही कर्म बन्ध को क्रिया का कर्ता कहा जाता है।
अजीव द्रव्यस्वरूप
जीव द्रव्य के ज्ञानादि गुण अजीव में नहीं है अतः यह अजीव द्रव्य कहलाता है । यह न तो जानता है न ही देखता है, नहीं रसास्वाद करता है नहीं श्रवणादि करता है । न ही सुख-दुःखादि का अनुभव करता है । जीव के गुण इसमें न होने से जीव द्रव्य से सर्वथा भिन्न अजीव द्रव्य कहलाता है। अजीव स्वयं कर्ता भोक्ता नहीं है । अजीव के मुख्य भेद में जो धर्मास्तिकाय आदि हैं उनका मुख्य स्वरूप इस प्रकार है।
धर्मास्तिकाय
(१) धर्मास्तिकाय द्रव्य-यह गति सहायक द्रव्य है। जीव और पुद्गल परमाणु को चौदह राज लोक में गति करने में यह गति सहायक माध्यम धर्मास्तिकाय नामक द्रव्य है। यह चौदह राज परिमित लोक व्यापी द्रव्य है । स्वयं निष्क्रिय, अरूपी असंख्य प्रदेशात्मक अस्तिकाय द्रव्य है।
(२) अधर्मास्तिकाय द्रव्य-यह स्थिति | अधर्मास्तिकाय ।
सहायक द्रव्य है। जीव एवं पुद्गल परमाणु जो
गति करने वाले द्रव्य है उनको रूकने के लिए || स्थिति में सहायक यह अधर्मास्तिकाय द्रव्य है । यह
भी लोक व्यापी अरूपी द्रव्य है। स्वयं निष्क्रिय
है । जीवादि इसकी सहायता से स्थिति धारण करते हैं । असंख्य प्रदेशी अस्तिकाय युक्त द्रव्य है।
आकाशास्तिकाय
(३) प्राकाशास्तिकाय द्रव्य-लोकालोक व्यापी यह अनन्त आकाश द्रव्य है। जीव-पुद्गल-आदि द्रव्यों को रहने के लिए जगह देने वाला, अवकाश प्रदान करने वाला यह आकाशास्तिकाय द्रव्य है। यह भी सप्रदेशी होने से अतिकाय युक्त अरूपी द्रव्य कहलाता है । यह सभी अन्य द्रव्यों के लिए आधारभूत द्रव्य हैं। हम सब इसी में रहते हैं ।
कर्म को गति न्यारी
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