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________________ उपरोक्त पांच कारण मुख्य रूप से माने गए है। काल-स्वभाव-नियतिपूवकृत कर्म एवं पुरुषार्थवाद ये पांच कारण प्रमुख है। इसके अलावा भी श्वेताश्वतर उपनिषद में यदृच्छावाद भी माना गया है । यह भी एक वाद था। यह भी एक पक्ष था । महाभारत में भी यदृच्छावाद का उल्लेख शांति पर्व में है । 'यदृच्छा' शब्द का अर्थ अकस्मात् किया जाता है । अर्थात् किसी भी कारण के बिना । इनका कहना है कि किसी भी कारण के बिना निष्कारण ही कांटे में तीक्ष्णता होती है । उसी तरह अनिमित्त-निमित्त के बिना भावों की उत्पत्ति होती है । अनिमित्तवाद, अकस्मातवाद और यदृच्छावाद ये समानार्थक है । यदृच्छावादी मुख्य रूप से कारण की सत्ता को ही अस्वीकार करते हैं। इसी तरह बुद्ध चरित में संजय बेलट्ठी के अज्ञानवाद को भी एक वाद के रूप में कहा गया है । सभी पदार्थों का ज्ञान संभव ही नहीं है। कहकर अज्ञानवाद की तरफ झूकने वाले अज्ञानवादी का भी एक पक्ष था। सूत्रकृतांग सूत्र में भी अज्ञानवादी के निरसन की चर्चा की गई है । ये दोनों सामान्य कारण है । मुख्य कालादि पांच कारण है । इनमें क्या समझना ? किस पक्ष को सत्य समझें ? काल सही है ? या नियति सही है ? या स्वभाव ? या अन्य ? प्रत्येक का एक-एक का स्वरूप देखने पर ऐसा लगता है कि एक ही कारण सही है । कालवादी की बातें सुनते हैं तब वही सही लगती है । स्वभाववादी की बात सुनते हैं तब ऐसा लगता है कि यही पक्ष सही है । हम द्विधा में गिर जाते हैं ! कौनसा पक्ष स्वीकारें ? कौनसा सही है ? इसके उत्तर में सन्मतितर्क महाग्रन्थ में कहा है कि कालो-सहाव-णियई-पुवकम्म पुरिसकारणेगंता। मिच्छत तं चेव उ समासपो हुति सम्मत। सिद्धसेन दिवाकरसूरि महाराज फरमाते हैं कि-काल-स्वभाव-नियतिपूर्वकृतकर्म एवं पुरुषार्थ (पुरुषकारणता) इन सभी को एकान्त निरपेक्ष बुद्धि से भिन्नभिन्न मानना, या किसी एक को ही मानना, या स्वतन्त्र रूप से ही एक ही कारण न मानना ही मिथ्यात्व है । यदि इन पांचों कारणों को समवाय रूप से, पांचों को सापेक्षभाव से सभी को साथ में माने, समुदाय रूप से, समास-संयुक्त रूप से मानें तो सम्यक् मान्यता होगी । तभी सम्यक्त्व होगा। अत: पांचों का सम्मिलित रूप ही स्वीकारना चाहिए। इसी बात को विशेष पुष्ट करते हुए पूज्य हरिभद्र सूरि महाराज ने शास्त्रवार्ता समुच्चय ग्रन्थ में कहा है कि कर्म की गति न्यारी १०७
SR No.002478
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 02 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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