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भोग्यं च विश्वं सत्त्वानां विधिना तेन तेन यत् ।
दृश्यतेऽध्यक्षमेवेदं तस्मात् तत् कर्मज हि तत् ।। चौथे पक्षवाले-पूर्वकृत कर्मवादी है । वे कर्मवादी कहते हैं कि-इस चराचरात्मक जगत् में भोग्य की सत्ता भोक्ता की सत्ता पर ही निर्भर है, क्योंकि भोग्य यह सम्बन्धी सापेक्ष पदार्थ है। अतः भोक्तारूप संबंधी के अभाव में उसका अस्तित्व ही नही हो सकता । भोक्ता भी अकृत कर्म का भोग नहीं कर सकता क्योंकि जो जिसके व्यापार से उत्पन्न होता है वही उसका भोग्य होता है । यदि अकृत कर्म का भी भोग मानेंगे तो मोक्ष में बिराजमान मुक्तात्मा में भी भोग की आपत्ति आएगी। अतः जगत् भोक्ता के कर्मों से ही उत्पन्न होता है । सृष्टि की कारणता जीव-कर्मों में ही है । अन्य सभी कारण व्यभिचरित है यही सुसंगत सिद्ध होता है । अतः जीवों का पूर्वोपार्जित कर्म ही सुख-दुःखादि का कारणभूत है । इस तरह पूर्वकृत-या पूर्वो. पाजित कर्म को कारणरूप में स्वीकार किया गया है ।
पुरुषार्थवार सन्मतितर्क महाग्रन्थ में वादीमतंगज सिद्धसेन दिवाकरसूरि महाराज ने पांचर पक्ष में पुरुषार्थवाद की चर्चा करते हुए “पुरिसकारणेगंता" शब्द से 'पुरुष कारण विशेष' की मान्यता का समर्थन किया है । कई लोग काल-स्वभाव नियति-पूर्वोपार्जि कर्म आदि तथा ईश्वरादि कोई कारण न स्वीकारते हुए एकमात्र पुरुषार्थवाद क ही पक्ष मानते है । ये सब कुछ नहीं है। पुरुष अपने प्रयत्न विशेष से जो करता वही होता है । सबका आधार एक मात्र कर्ता के ऊपर निर्भर करता है । अतः एक मात्र पुरुष कृति ही समर्थ कारण है। पूर्व कर्म में है तो क्या हुआ ? हम तो ऐस नहीं ऐसा करेंगे । अतः हमारा पुरुषार्थ कारण बनेगा। क्या जरूर है कि हम दैववा (भाग्य) या कर्म या ईश्वर को कारण माने ? कोई आवश्यकता नहीं है । ईश्वरा। तथा पूर्वकृतकर्मादि सभी अदृष्ठ-अदृश्य अप्रत्यक्ष कारण है अतः वे सभी संदेहात्मकसंशयात्मक है । एक मात्र पुरुषकृतित्व कारण ही दृश्य एवं प्रत्यक्ष कारण है। सुखदुःख आदि भी पुरुषेच्छाधीन है । पुरुष अपने कारण से ही सुखी या दु:खी होता है । हम कर्माधीन ही मरेंगे ऐसी भी बात नहीं है। नियति ही हमें मारेगी ऐसी भी बात नही है । हम स्वेच्छा से आत्महत्या करके अभी मर सकते हैं। सब कुछ अभी ही अपनी कृति से कर सकते हैं । खेती करना पुरुष प्रयत्न पर निर्भर है । इस तरह पुरु. षार्थवादी एक मात्र पुरुष कारणता को ही स्वीकार करते हैं। पुरुष चाहे वही कर सकता है । उसी की धारणानुसार सब कुछ होता है । अन्य कोई कारण नहीं है।
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कर्म की गति न्यारी