________________
हुए है। इस चक्र में परिवर्तन करने की जीव की शक्ति नहीं है । नियति एक चक्र है जो सतत घूमता रहता है । जीवों को नियत क्रमशः इधर-उधर घूमाता रहता है ।
तथागत बुद्ध के सामने पूरण काश्यप नियतिवाद का समर्थन करता था। ऐसा त्रिपिटक में उल्लेख है। भगवान महावीरस्वामी के सामने मंखली गोशालक नियतिवाद का समर्थक था। महावीर प्रभु ने अपने काल में अनेक विख्यात नियतिवादियों के मत में परिवर्तन कराया है ऐसा उपासकदशाङ्ग अध्ययन ७ में उल्लेख है। धीरे-धीरे आजीवकमत जैन परम्परा में सम्मिलित होकर लुप्त हो गया। श्री भगवतीसूत्र में तथा श्री सूत्रकृतांग आगम में नियतिवाद का वर्णन किया गया है । अक्रियावाद भी नियतिवाद से मिलता-जुलता है। नियतिवाद की मुख्य घोषणा यह है कि
प्राप्तव्यो नियति बलाश्रयेण योऽर्थः, सोऽवश्यं भवति नृणां शुभोऽशुभो वा। भूतानां महति कृतेऽपि हि प्रयत्ने, नाऽभाव्यं भवति न भावनिोऽस्ति नाशः ।।
अर्थात्-जो कार्य जिस समय जिस कारण से जिस रूप में उत्पन्न होने का नियति से निर्दिष्ट होता है वह उस समय उसी कारण से उसी रूप में उत्पन्न होता है । अभावि हो नहीं सकता और भावि टल नहीं सकता। अर्थात् जो वस्तु जिससे नहीं होने वाली है वह बहुत प्रयत्न करने पर भी उससे नहीं होती, और जो होने वाली होती है उसका कभी नाश याने विघटन नहीं हो सकता। इस तरह नियतिवाद की पुष्टि की गई है । सब कुछ ठीक लेकिन निरपेक्ष वृत्ति से एक मात्र नियति को ही कारण मानने से भी नहीं चलेगा। चूकि नियति सत्ता का अस्तित्व किस स्वरूप में है ? क्या यह वस्तु विशेष है या वस्तु धर्म ? क्या यह मूर्त है या अमूर्त ? क्या यह दृश्यमान कर्ता है या अकर्ता ? क्या यह सिर्फ काल है या अकाल ? नियतिः स्वतः स्वतंत्र सत्ता है या परतन्त्र-पराधीन है ? ऐसे कई प्रश्न खड़े होते हैं ? अतः नियति सर्वथा नही है ऐसी भी बात नही है परन्तु सिर्फ नियतिवाद को ही एक स्वतंत्र कारण मानकर चलना संभव नहीं है । अन्य कोई कारण न स्वीकारें और एक मात्र नियति ही समस्त संसार का कारण है या जीवों के सुख-दुःखादि का कारण है यह कहना भी युक्तिसंगत सिद्ध नही होगा।
पूर्वकृत-कर्मवाद न भोक्तृन्यतिरेकेण भोग्यं जगति विद्यते । न चाकृतस्य भोक्ता स्यान्मुक्तानां भोगभावतः ॥
कर्म की गति न्यारी
१०५