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है? कर्म का घटक द्रव्य क्या है ? बंधने के बाद कितने विभग में विभक्त होते ह? काल समय गणना के साथ कर्म का तालमेल कितना है? कैसा है ? बंधने के बाद कर्मों की बंध स्थिति कितनी कम ज्यादा है ? ये कितने काल तक टिकते हैं? कब क्षीण होते हैं ? कमों का विपाक-विपाकोदय कैसा होता है। क्या कर्म का फल कोई दूसरा देता है ? या स्वयं ही मिलता है ? कर्म जड है ये चेतन? कर्म बलवान है कि आत्मा बलवान है? कर्म का बन्ध, उदय, उदीरणा तथा सत्ता कितनी प्रबल और विशाल है? ऐसे सेंकडो प्रश्नो के उत्तर की खोज कराई गई है। पाठक गण गोताखोर बनकर इस पुस्तक की गहराई तक पहुंच पाएंगे तो जरुर कुछ रत्न हाथ लगेंगे। कर्म शत्रु की सेना कितनी लम्बी चौडी है? इस सेना का नायक राजा कौन है ? मंत्री सेनाधिपति कौन है ? इसके साथ युद्ध छेडने साथ युदधि छेटने में व्युहरचना करने में(आत्मा को) कैसी नाकाबंदी और रचना करनी पडेगी? कैसे इन कर्मो को म्हात कर पाउंगा?
चेतनात्मा है, जो ज्ञान, दर्शनादि गुणवान है। ज्ञान,दर्शनादि गुण कर्मग्रस्त है। कर्म भार से दबे हुए है। कोई हरकत नहीं, जितने भी दबे हुए हैं, ठीक है, अभी भी मौका है। ये कर्म कितनी ही शक्ति प्रदर्शन करे, अखिर तो सभी जड है। अजीव है। कार्मण वर्गणा के जड पुद्गल परमाणुओं द्वारा बने हुए पिंड स्वरुप है, और मैं तो अनन्त शक्तिशाली चेतनात्मा हु। क्या मैं सिर्फ जड कर्मो को परास्त नहीं कर पाउंगा? क्यों नहीं? सव्वपावप्पणासणो सर्व पाप कर्मो का नाश करना ही सिद्ध करने योग्य साधना कर रहा हूं। फिर क्यों नहीं कर्मक्षय कर पाउंगा?
भूतकालमें मेरे जैसी अनन्त आत्माए हुई है जिन्होने समस्त कर्मों का सर्वथा क्षय किया है, और सदा के लिए बंधन से मुक्त बनी है।
प्रस्तुत पुस्तक साधकों-आराधकों को कर्म विषयक जानकारी प्रदान करने में सहायक है। यद्यपि जैन शासन का कर्मविज्ञान महासागर से भी ज्यादा अत्यन्त गहन एवं अगाध है। लेकिन यह तो प्राथमिक प्रवेश करनेवालों के लिए सिर्फ परिचयात्मक ज्ञान प्राप्त करानेवाला प्राथमिक सामान्य संस्करण है। इससे जैन कर्मविज्ञान का प्राथमिक बोध ही प्राप्त होगा। विशेष गहराई में पहुंचने की जिज्ञासावालों को अन्य गहनतम कठिन ग्रन्थों का दोहन करना चाहिए।
जैन कर्मशास्त्रों में आठ कर्म मुख्य बताए गए है। इनमें से सिर्फ एक ज्ञानवरणीय कर्म का विवेचन प्रस्तुत प्रथम भाग में उपलब्ध है। अतः पाठक वर्ग को चाहिए कि आठों कर्म का साद्यन्त सांगोपांग व्यवस्थित अध्ययन पद्धति से अभ्यास करने हेत बाकि के दो भाग भी अवश्य बसा लें।
यह कथा-नॉवेल की पुस्तक नहीं है कि जिसे एकबार शिघ्र ही पढकर एक तरफ रख दी। यदि आप जैन शास्त्र के अगाध कर्मविज्ञान की अतल गहराई में प्रवेश करना चाहते हो तो प्रथम इस ग्रन्थ को अभ्यास की दृष्टि से अच्छी तरह पढने का प्रयत्न करें। व्याख्याएं समझकर पदार्थों को स्पष्ट करीए। ताकि आगे आसानं लगने लगे।
आशा है, पाठक वर्ग इस पुरुषार्थ को न्याय देगा। हिन्दी वाङ्गमय क्षेत्र में ऐसे ग्रन्थों की कमी महसूस हो रही थी अतः हिन्दी भाषी वर्ग से प्रेरणा पाकर प्रस्तुत हिन्दी संस्करण तैयार करके जैन शासन के चरणों में समर्पित करते हुए धन्यता का अनुभव कर रहा हु। वाचक गण इस संस्करण के माध्यम से कर्मविज्ञान का सही स्वरुप समजकर कर्मक्षय की दिशा में अग्रसर होकर अन्तिम धाम मुक्तिपुरी में यथाशिघ्र स्थान प्राप्त करें इसी शुभेच्छा सह.....
- पंढ्यास अरुणविजय गणिवर्य महाराज