SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पहचानते भी है तो वे भगवान जैसे हैं, वैसे नहीं जानते । जो स्वरूप भगवान का है उस स्वरूप को नहीं जानते । उसमें भी विकृतियां खड़ी कर देते हैं। विकृत स्वरूप में पहचानते हैं । अतः हमें चाहिए कि दुसरों को हमारी दृष्टि जैसी है वैसे स्वरूप में न पहचानें। यह मिथ्या दर्शन हो जाएगा, भगवान जैसे है, जैसा शुद्ध स्वरूप उनका है उन्हें हम वैसे ही शुद्ध स्वरूप में पहचाने तो ही सही पहचान होगी । यही सम्यग दर्शन कहलाएगा । हम बाजार में जाते हैं तो जो भी पीला हो वह सोना है ऐसा समझकर सोना नहीं खरीदते है। यदि खरीदते हैं तो हम ठगे जाएंगे। चूंकि तर्क पद्धति से ही न्याय नहीं लगाया है। सही न्याय भी देखें कि - जो सोना होता है वह जरूर पीला होता है इसमें संदेह नहीं है परंतु सभी पीले पदार्थ सोने के रूप में ही है ऐसा नियम नहीं है। अतः पीला देखकर सोना न समझें। सोने को जरुर पीला समझें। कई एक जैसे पीले रंग के पदार्थों में सोना भी पीला है। पीले-पीले रंग के समानदर्शी पदार्थों में सोना भी मिल गया है । रंग साम्यता में पदार्थ खो गया है। उसे ढुंढकर निकालने के लिए जरूर परीक्षक बुद्धि अपनानी पड़ेगी। परीक्षा करके खरीदने में ठगे नहीं जाएंगे। कसौटी के पथ्थर पर सोने की परीक्षा की जाती है । उसी तरह कष, छेद,भेद,तापादि भिन्न-भिन्न परीक्षा करके सोना खरीदा जाता है। हमारी लाखों रूपयों की संपत्ति व्यर्थ न चली जाये, अतः सुवर्ण परीक्षा, रत्न परीक्षा आदि करते हैं। यहां परीक्षा करना लाभदायक है। ' न्याय तार्किक शिरोमणी पूज्य हरिभद्रसूरी महाराज भी भगवान की, धर्म की परीक्षा कर के भगवान को - धर्म को, पहचानने के लिए कहते हैं। जिसकी हम जिंदगी भर पूजा करे, उपासना करे, जीवनभर जिसकी भक्ति करें और उसे ही न पहचान पाये तो हमारी सारी भक्ति निष्फल चली जाएगी । ‘बीना विचारे जो करे, सो पीछे पछताये' वाली कहावत चरितार्थ होती हुई दिखाई देगी। एक गृहस्थ ने पारसमणी समझकर एक रत्नमणी को खूब संभालकर रखा । जान से भी ज्यादा जिसका जतन किया। कोई देख न जाये, कोई चोरी कर उठा न जाय इस डर से हमेशा सीने से लगाकर बांध रखा । इसलिए की शायद भविष्य में जब भी कभी आर्थिक संकट आकर खड़ा होगा उस दिन इस पारसमणी से सोना बनाकर जीविका चला लेंगे। संभालते हुए ५०-६० वर्ष बीत गए। आर्थिक परिस्थिती ने पलटा खाया । दो युवान बेटे मौत के मुंह में चले गए। आजीविका का आधार टूट गया। आयु वृद्धावस्था के पार पहुंच गई थी। घर में खाने पीने की समस्या खड़ी होने लगी थी। अतः पत्नि ने कहा कि अब तो वह पारसमणी निकालो, कुछ सोना बना लो। बाजार में बेचो, अनाज खरीद कर लाएं। जिससे आजीविका तो चले । पत्नि की बात पर गौर से सोचा । बात सही थी । वृद्ध ने अपनी पत्नि से कहा, कर्म की गति नयारी
SR No.002477
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Rsearch Foundation Viralayam
Publication Year2012
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy