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________________ पत्नि के बीच प्रेम की एक कडी है, मां और बेटे के बीच स्नेह - वात्सल्य की जो कड़ी है वही दो के भेद को मिटाकर अभेद की और ले जाती है । उसी तरह भक्त और भगवान के बीच के भेद को भूलानेवाली कडी भक्ति है, जो भेद को मिटाकर अभेद भाव की कक्षा में ले जाकर एकाकार बना देती है। भक्त भगवान बन जाता है । अतः भक्ति में गुणाकर्षण की चुंबकीय शक्ति है। ईश्वर जो आत्म गुणो के सर्व संपूर्ण वैभव - ऐश्वर्यों से संपन्न है, वही हमारी भक्ति का केन्द्र है। भक्ति उसे पाने का सरलतम माध्यम है। जिसमें गुणोत्कर्ष का स्थान है उसके गुणों का गुणाकर्षण करने की चुंबकीय शक्ति भक्त में है । भक्त भगवान से प्रार्थना करता है कि - गुण अनन्ता सदा तुझ खजाने भर्या । एक गुण देत मुझ शुं विमाशो । । भक्त भक्ति के माध्यम से भगवान और अपने बीच का भेद - अंतर कम करता हुआ समीप में जाकर गुण याचना करता हुआ कहता है - हे प्रभु! आप तो सदा ही अनंत गुणो से भरे हुए हो, गुणों के भंडार हो, अतः मुझे भी एक गुण दे दीजिए। एक गुण देने में आपके गुणो के भंडार में कौनसी कमी आ जाएगी ? परमात्म स्वरूप ईश्वर को गुणैश्वर्य संपन्न कहा है। अतः ईश्वरोपासना भक्ति के माध्यम से की जाती है । ईश्वर को पहचानना जरूरी है । एक पत्नी से उनके पति की पहचान पूछी जाय और पत्नी उत्तर में कहे कि वे कैसे है, वे कौन है इत्यादि मैं नहीं जानती । 'पति देवो भव' की भावना से पत्नी पति के प्रति समर्पित है और इस तरह अपना संसार चलाती हुई २५- ५० वर्षों का काल बीता चुकी है । ५० वर्ष की लंबी अवधि तक पति के साथ रह कर पति की सेवा भक्ति करती हुई पत्नी ऐसा जवाब दे यह संभव नहीं लगता। वह अपने पति को अच्छी तरह जानती है। नख से शीख तक नस-नस पहचानती है। ना कैसे कहे ? ठीक है कि संसार का संबंध है और जिंदगी भर साथ रहना है इसलिए पत्नि पति को अच्छी तरह पहचानती हो यह संभव है। परंतु क्या हम यही प्रश्न एक भक्त को पूछें कि भाई ! तुम जिस भगवान की वर्षों से भक्ति करते हो उस भगवान को पहचानते तो हो कि नहीं ? भगवान का स्वरूप अच्छी तरह जानते हो कि नहीं ? शायद पत्नि के उत्तर की तरह भक्त इतना सुंदर दृढ विश्वासभर उत्तर दे पायेगा कि नहीं, इसमें हम को शंका है। पत्नि पति को अच्छी तरह जानती है, पहचानती है परंतु एक भक्त भगवान को अच्छी तरह पहचानता हैं ? जिसका जैसा स्वरूप है उसका वैसा स्वरूप न जाने, न पहचाने तो यह हमारा सम्यग् दर्शन नहीं होगा। या तो भगवान को पहचानते ही नहीं है और कई ५३ - कर्म की गति नयारी
SR No.002477
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Rsearch Foundation Viralayam
Publication Year2012
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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